30 अप्रैल, 2010

सुवासित वक़्त







पतझड़ में गिरे शब्द
फिर से उग आए हैं
पूरे दरख़्त भर जायेंगे
फिर मैं लिखूंगी

पतझड़ और बसंत
शब्दों के
तो आते-जाते ही रहते हैं

जब सबकुछ वीरान होता है
तो सोच भी वीरान हो जाती है
सिसकियों के बीच बहते आंसुओं से
कोंपले कब फूट पड़ती हैं
पता भी नहीं चलता

मन की दरख्तों से
फिर कोई कहता है
कुछ लिखो
कुछ बुनो
ताकि गए पंछी लौट आएँ
घोंसला फिर बना लें
शब्दों के आदान-प्रदान के कलरव से
खाली वक़्त सुवासित हो जाये

27 अप्रैल, 2010

अनंत विस्तार


तेरी आँखों के सोनताल में
नज़्मों का उबटन लगा
मैं नहाती हूँ
शब्दों का मनमोहक परिधान
मुझे तुम्हारी नज़्म में ज़िन्दगी देता है
इस आबेहयात का रंग
मुझे अनंत विस्तार देता है

21 अप्रैल, 2010

गर्मी है !!!



उफ़ ये गर्मी !
शब्द भी बीमार हो गए हैं
डिहाईडरेशन के शिकार हो गए हैं
सर उठाते तो हैं
पर निढाल लुढ़क जाते हैं ...

एलेक्ट्रोल पिलाया है
दही सफगोल भी दिया है
निम्बू पानी तो भरपूर
फिर भी आँखें थोड़ी खुली
थोड़ी बन्द सी हैं शब्दों की

तीमारदारी ज़रूरी है
वरना बातों का क्रम रुक जायेगा
गलतफहमियां लू की तरह झुलसाने लगेंगी
और गर्मी के मारे हम अजनबी हो जायेंगे

कच्चे आम ले आई हूँ
इसे भी आजमाना है
शब्दों को बचाना है
कुछ कहना है और सुनना है ...

12 अप्रैल, 2010

तूफ़ान और ख़ामोशी


तूफ़ान और ख़ामोशी मिलते हैं
किसी जिद्दी बच्चे की मानिंद
तूफ़ान सर पटकता है
सारी चीजें इधर से उधर कर देता है
पेड़ की शाखाओं को हिलाता है
चिड़िया डरके घोंसले में दुबक जाती है
बरसनेवाले मेघ भी बादलों में दुबके
उड़ जाते हैं ..

पर ख़ामोशी !
एक माँ की तरह
तूफ़ान का सामना करती है
बिखरी बेतरतीब चीजों को
गुमसुम सी निहारती है
और मीठी लोरी जैसा
कुछ कह जाती है चुपचाप ..

तूफ़ान शांत हो जाता है
और ज़िन्दगी
फिर से अपनी पटरी पर चलने लगती है ..

09 अप्रैल, 2010

गिरते हैं शहंशाह भी मैदाने जंग में



हम तो हमेशा
तलवार की धार पर
साथ चले
जब मैं कटी
तो तुम भी लहुलुहान थे

मैंने तुम्हें पट्टी बाँधी
तुमने मुझे
और प्यार के इस मरहम से
मुस्कुराने लगे

जब मेरे सामान फेंके गए
उसमें तुम्हारे नन्हें खिलौने भी थे
मैंने तेजी से तुम्हारे खिलौने उठाये
आँचल से पोछ बक्से में रख दिया
तुमने मेरे कपड़े उठाये
उनको सहेज दिया
एक जीत की भावना लिए
हम आपस में खेलने लगे

भरी भीड़ में
जब मुझपर मुकदमा चला
कटघरे में खड़े तुम्हारे पाँव भी
बर्फ की तरह जम जाते थे
हम एक-दूसरे की ऊँगली थामे
रास्ते पार करते गए

मासूम मन के घाव
सबको नहीं दीखते
दिल की लडखडाती धडकनें सुनाई नहीं देती

तुमने मेरे दर्द को महसूस किया
और मेरी मुस्कान बने
तुम्हारी जीत मेरी जीत है
जब भी मन उदास हो
याद रखो-
गिरते हैं शहंशाह भी मैदाने जंग में

02 अप्रैल, 2010

अपनी मर्जी की नहीं


आम घरों में बेटियाँ
साल भर में
बड़ी हो जाती हैं
और निरंतर बड़ी होती जाती हैं
मन की उम्र की
कोई पहचान नहीं होती
नहीं होता उसे
प्यार करने का अधिकार
उसकी कोई धरती
अपनी मर्जी की नहीं होती

हाँ वो बनाती है ज़मीन
अपनी मर्जी का
अपने मन में
पर वहाँ भी
पैर लहुलुहान कर दिए जाते हैं
और अंत में एक नाम मिल जाता है
कब्र की शिलालेखों पर
बस एक नाम.....
उन पदचिन्हों पर चलना
आग से ही गुजरना होता है
मर्जी को कौन सुनता है भला !

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...