25 फ़रवरी, 2011

कशिश




माना - ज़िन्दगी भाग रही है
माना - कहीं कोई ठहराव नहीं है
माना - भौतिकवादी हो गए हैं सब
माना - good morning से good night तक कोई तालमेल नहीं रहा
माना - भावनाओं से पेट की आग नहीं बुझती
माना - "स्व" की संकुचित भाषा पैनी हो गयी है

पर मानो -

आज भी ॐ से शुभप्रभात की ज्योत जलती है
आज भी आशीर्वाद की ज़रूरत है
आज भी ज़रूरत है उन भावनाओं की
जो दूसरो की भूख को समझते हैं
आज भी, इस भाग-दौड़ में
कई विस्मित,खाली आँखें कुछ ढूंढ रही हैं
आज भी, मेहमान को देवता मानने वाले दुर्बल शरीर हैं
आज भी कुछ घरों से कोई खाली हाथ नही जाता
आज भी,
जिसे तुम राख मान रहे हो
उसके अन्दर अब भी चिंगारी है
संस्कारों के पदचिह्न आज भी हैं,
मूल्यांकन की तदबीर आज भी है
और मानो
आज भी इसमें ही कशिश है....

20 फ़रवरी, 2011

फिर एक युग का इंतज़ार



खबर क्या आई
'कृष्ण आ रहे हैं .....'
अल्हड़ उम्र सी
निकल पड़ी थी राधा
बृज की गलियों में
पायल पहन छम छम
बिखरा बिखरा रूप
पसीने की कुछ बूंदें चेहरे पर
सुधबुध खोयी , बावली सी
....
आज भी कुछ आँखें थीं साथ
बातें थीं ज़ुबान में
ठिठकी थी राधा
लौटी वर्तमान में .....
संभाला खुद को
अपने मान के सर पे आँचल रखा
खामोश सी धूल उड़ते रास्ते के किनारे
वृक्ष की ओट लिए खड़ी हो गई ....
...
'मुझसे मिले बगैर कृष्ण की यात्रा अधूरी होगी'
सोचकर आँखें मूंद लीं
प्रतीक्षा के पल पलकों का कम्पन बन गए
कृष्ण के नाम के पूर्व अपने नाम को रटती
प्रेममई राधा कैसे विश्वास तजती
.....
किसी सहेली ने झकझोरा ...
'कृष्ण मथुरा लौट रहे ;'
सन्नाटे सी चित्रलिखित राधा ने
पलकें उठाईं
भरमाई सी
खुद में बिखरती हुई
' कान्हा'
बस यही तो कह पाई ,
कृष्ण की एक झलक ...एक पल
और फिर एक युग का इंतज़ार
....

14 फ़रवरी, 2011

आओ एक अपना घर बना लें हम भी !



कच्ची मिटटी से
जो ख़्वाब कल बनाए थे,
चलो आज पका लें उनको
आओ एक अपना घर बना लें हम भी !

रिश्तों की उम्र बड़ी छोटी है
कोई एक पल के लिए
कोई दो पल के लिए
वक़्त खो जाये उससे पहले
आओ एक अपना घर बना लें हम भी !

आदतन कोई वादा मत करना
वादे कभी साथ नहीं चलते
वक़्त जब सामने खड़ा होता है
अपना ही ऐतबार होता है
वादे टूट जाएँ उससे पहले
आओ एक अपना घर बना लें हम भी !

कितने सालों दिन महीनों से
हरी पगडंडियों के पाँव भी मचलते हैं
सितारे आसमां से लटके हैं
हवाएँ खिलखिलाके चलती हैं
जाने कब आखिरी मौसम आए
आओ एक अपना घर बना लें हम भी !

10 फ़रवरी, 2011

पहले जी लो ..



सत्य से भाग कर क्या होगा
खुद को उलझाकर क्या होगा
दिल जो चाहता है
वही करो
दिल के आगे कभी हार नहीं होती ...
कारण किसी को मत बनाओ
क्योंकि कोई भी कारण
किसी की प्रतीक्षा नहीं करता

हाँ उस रौशनी पर यकीन रखो
जो तुम्हारे बिना चाहे भी
तुम्हें राह दिखाती है
अनवरत जलती रहती है !

अपने स्व की तुष्टि के आगे
वक़्त जाया मत करो
एहसान से ऊपर
आईने में खुद को देखो
क्या हर एहसान
तुम्हारा अभिमान नहीं है
या खुद को जिंदा रखने का अभियान ?

अक्सर मरे हुओं को पाने के लिए
तुम खुदा को बुत बना देते हो
फिर उसके होने का प्रमाण मांगते हो
सोचो ....
क्या तुम हो ?

तुम तो अप्राप्य के पीछे
प्राप्य से अलग दौड़ लगा रहे हो
खुद को दोष ना देकर
दूसरों को कारण बता रहे हो
हर धागे से खुद को खुद ही उलझाकर
उसे तोड़ते जा रहे हो

...दिल कभी गूंगा नहीं होता
शोर से परे उसकी सुनो
मरने से पहले जी लो ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...