29 जून, 2011

तुम पर है



मैं एक विचार हूँ
अब तुम पर है- मुझे किस तरह लेते हो
मैं सत्य हूँ निर्बाधित विचारों का
अब तुम पर है - मुझे किस तरह लेते हो
तुम अगर इन विचारों को तोड़ते मरोड़ते हो
झूठ के पिरामिड बनाते हो
फिर तो मैं हूँ ही नहीं कहीं
मुझे ढूंढना , उलाहने देना निरर्थक है
अंत अवश्यम्भावी है
मेरे संग चलो सुकून से
या झूठ की असंतुलित मरीचिका में
सत्य का सुकून ढूंढते रहो ....
यह सब तुम पर है
सिर्फ तुम पर !

22 जून, 2011

'सत्यमेव जयते '



पीछे मुड़कर मत देखो
कि क्या सोचा क्या किया क्या खोया ...
जो पाया , उस पर गौर करो
जो खोया उस पर चिंतन करो !

खोने के पीछे हमारी अपनी सोच होती है
हम पूरी टोली को साथ लिए चलते हैं ...
निर्माण में देखा है देवताओं को
असुरों के संग चलते ?

हमें पता है कि
असुर छद्म रूप ले
देवताओं सा आचरण कर
दो कदम ही चल पाते हैं
पर हम ही उन्हें अपने साथ घसीटते जाते हैं
'अतिथि देवो भवः ' कहकर
या रिश्तों की महत्ता बताकर !!!
असुर को अतिथि बनाकर पूजते रहना
गले हुए रिश्तों को ढोना
कभी देवता ने नहीं कहा
'कर्म की गति' कहकर
हमने खुद को जीवंत नरक में धकेल दिया !

हम बड़ी बेचारगी से कहते हैं
'जो बुरा करता है
वही खुश रहता है ....'
रहेगा ही न
वह वही करता है
जो वह चाहता है
और हम --------
संस्कारों को रुसवा करते हुए
उसे मरहम देते हैं
कीमती मुस्कान देते हैं
और अपने दिल को तसल्ली - 'सत्यमेव जयते '

16 जून, 2011

प्रतिविम्बित अक्स





आदमकद शीशे सा उसका व्यक्तित्व
और तार तार उसकी मनःस्थिति !
मैं मौन उसे सुनती हूँ
आकाश में प्रतिविम्बित उसका अक्स
घने सघन मेघों सा बरसता जाता है
धरती सी हथेली पर !
नहीं हिलने देती मैं हथेलियों को
नहीं कहती कुछ...
कैसे कहूँ कुछ
जब वह आकाश से पाताल तक
अपने सच को कहता है !
ओह ... सच की सिसकियाँ
मेरे मौन की गुफा में
पानी सदृश शिवलिंग का निर्माण करती हैं
........
अदभुत है यह संरचना
सबकुछ निर्भीक
शांत
स्व में सुवासित होता !
गंगा आँखों से निःसृत होती है
त्रिनेत्र से दीपक प्रोज्ज्वलित होता है
अपने ही संकल्प परिक्रमा करते हैं
निर्णय मंदिर की घंटियों में
उद्घोषित होते हैं
द्वार पूर्णतया खुले होते हैं
पर दर्शन वही कर पाता है
जो सत्य के वशीभूत होता है !

12 जून, 2011

हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे !



हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे ...
बचपन कहते हम पाँच भाई बहनों की शरारती चुलबुली आँखें दबे पाँव ढेर सारे किस्से लिए पास आ बैठती
हैं , टप टप पलकें झपका पूछती हैं - कौन सी कहानी सुनाऊं ? और होठों पर एक लम्बी सी शरारती मुस्कान
फ़ैल जाती है .
गर्मी की कहानी ? कौन सी गर्मी ? सावन के अंधे बचपन को सब हरा ही नज़र आता है . तो हमें भी सिर्फ हरियाली
नज़र आती थी , चिलचिलाती मीठी धूप जन्नत जैसी लगती थी. रहता था इंतज़ार पापा माँ के सोने का (खासकर पापा का ),
और हम पीछे के दरवाज़े से बाहर निकल जाते थे . अमरुद के पेड़ पर हम बन्दर की तरह बैठे बस अमरुद की शक्ल लिए अमरुद
को तोड़ खाते और चेहरे पर ऐसा भाव होता कि इससे मीठा अमरुद न कभी हुआ न होगा . कसैलेपन में भी गजब की मिठास होती
थी , नंगे पाँव जलते नहीं थे , पसीने की बूंदों में कमाल का सौन्दर्य दिखता था .
हमारी सबसे प्यारी जगह कौन सी थी , ये भी पता नहीं .... समझिये इस गाने में भी सार्थकता थी - 'जहाँ चार यार मिल जाएँ वहीँ रात हो
गुलज़ार ...' और हम तो पाँच थे . आँगन , अमरुद का पेड़ , पेड़ से छत , गोलम्बर पर चकवा चकिया ....... पापा जब लाल आँखें दिखाते
तो कुप्पा किये गाल से हँसी फूटती थी और बढ़ता था पापा का गुस्सा और हमें लगता - पापा को समझ कम है ! हाहाहा
वाकया सुनाती हूँ अपना -
गर्मी की सुबह की मीठी शीतल हवा में क्या मज़े की नींद आती थी ..................... और पापा , मुर्गे की बांग के साथ उनकी आवाज़ सबको हिलाती ,
'उठो उठो , सुबह को देखो ' अरे क्या देखूं सुबह ! सब धीरे धीरे उठ जाते , पर मुझे तो बन्द आँखों के सपनों से प्यार था तो कोई आवाज़ तब तक नहीं
सुनाई देती थी, जब तक उसमें कठोरता न आ जाए , वैसे उसका भी कोई ख़ास डर नहीं था , सबसे छोटी जो थी - खैर ! पापा उठाते , मैं बरामदे में जाकर लम्बी कुर्सी पर सो जाती , उन्हें लगता मैं उठ गई हूँ और मैं सपनों में सूरज को भी चाँद बना उसके पास घूमती . एक दिन हमेशा की तरह पापा ने उठने का सम्मन जारी किया और मैं बाहर की कुर्सी पर .... ओह लेटते मेरी चीख निकल गई - अम्माआआआआआआआआआअ ! बिढ्नी थी कुर्सी पर और उसने मुझे काट लिया था , मैं आंसुओं से सराबोर और अब बारी थी पापा की ... हंसकर बोले , 'ठीक हुआ ' .... सच कहूँ , बहुत गुस्सा आया था .
पर अंत में भी यही कहूँगी - हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे !



05 जून, 2011

ख़ामोशी से ख़ामोशी का रिश्ता



अनकहे दर्द को
अनकहे आंसू
बस विश्वास का सुकून देते हैं
वरना ख़ामोशी
ख़ामोशी संग नहीं बैठती ...
जब चलते चलते
किसी अनकहे से मुलाकात होती है
उसकी अनकही लहरों संग अपना अनकहा
कभी सीप कभी मोती कभी बालू में तब्दील होता जाता है
...... कितने हर्ष के साथ
उन नम बालुओं से तुम घरौंदे बनाते हो
सीप बटोरते हो
असली मोती लेकर गर्व से भर उठते हो ..
बालू की नमी को महसूस तो करो कभी
सीप को सुनो
मोती की असलियत का राज़ जानो ...
ये लहरें ये बालू ये सीप ये मोती
अपने अनकहे एहसासों से
बहुत करीबी रिश्ता जोड़ते हैं
इसकी अहमियत जान लो
तो हर रिश्ते मजबूत होंगे
कुछ ना कहकर भी कहते रहेंगे
.... ख़ामोशी से ख़ामोशी का रिश्ता
अटूट होता है
अपना होता है !

02 जून, 2011

मामला गंभीर है



काम से थककर चूर
कर्तव्यों की बलिवेदी पर
जब एक एक करके कई मौत हुई
...
कानून के अंधेपन के आगे
जब कई घरों से विलाप के स्वर
त्रिनेत्र बने
........
तो डरी सहमी लड़कियां सजग होने लगीं
माता पिता ने उन्हें हर शिक्षा देने की ठानी
कानून ने भी कई रास्ते खोल दिए ....
....
पर जो घुट घुटकर जीते हैं
वे उन रास्तों को पार करने से पहले भी
सौ बार सोचते हैं
पैसा ससुरालवाले को दहेज़ में दें
या क़ानूनी दावपेंच को
इस दुविधा में वे आज भी गुमनाम होते हैं !

आरक्षण , कानून , शिक्षा , आर्थिक मामले में
स्त्रियों का जो वर्ग उभरकर नारे लगा रहा है
उनके साथ अन्याय करने की
किसी सहमे पुरुष में हिम्मत नहीं
वह हतप्रभ ... एक कप चाय मांगने पर
अन्यायी बन बैठा है
माँ बहनों के लिए दायित्व निभाता
पत्नी की नज़र में नपुंसक , या क्रूर हो चला है

वैसे यह स्थिति पहले भी थी , कि -
'मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ ...'

अब तो हर तरफ नारी का वर्चस्व है !
नारी भ्रूण हत्या का मामला जितना गंभीर है
उतना ही गंभीर है लड़कों का आगत से डरना !

यातनाओं के सुलगते दर्द मध्यमवर्गीय परिवार के थे
पर कमान उच्च वर्गीय महिलाओं के हाथ में है ...
पेज 3 के परिधान में भाषण देती
वे कितनी हास्यास्पद लगती हैं
एक बार नम्र होकर पूछें तो सही ...

किटी पार्टी में रोक
नशे में कम कपड़ों में डगमगाने से रोक
पुरुषों के बीच उनके ग्रुप के हास्य में बैठने से रोक
संभ्रांत पुरुषों के ऊपर फंदा बनकर झूलता है

जितनी भी संस्थाएं हैं नारी उत्थान की
वे पैसा खाती हैं
और जिन स्त्रियों को देख ब्रम्हा भी डर जाएँ
उनके लिए नारे लगाती हैं !
जुल्म की शिकार जिस तरह रामायण में शूर्पनखा थी
वही हाल आज ७५ प्रतिशत शहरों में है ....

किसी स्वर्ण मृग का सवाल नहीं
लक्ष्मण कोई रेखा खींचे
मजाल नहीं
अब तो रावण को तथाकथित सीता सावित्री हर लेंगी
प्राण यमराज क्या लेगा
अब तो कानून के आगे
नारी यमराज की कुर्सी लिए बैठी है

मामला हंसने का नहीं बंधु
बहुत गंभीर है
आजकल की लड़कियां अच्छे भले लड़कों को
मानव बनना सिखाती हैं
फिर मानव से महामानव
और देखते देखते वह महामानव
एक बिचारे इन्सान में तब्दील हो जाता है
शिकायती पुलिंदे का सरताज !
..............................

01 जून, 2011

ख़ामोशी



तुम जब कुछ कहते हो
तो अनायास वह संवाद तुम्हारा
तुम्हारे स्व से होने लगता है
कथ्य भी तुम
जवाब भी तुम !
आश्चर्य की बात नहीं
बिल्कुल सहज बात है
तुम्हें भी पता है सही गलत
तुम जानते हो मेरी भी दृढ़ता
और अचानक तुम्हारे अन्दर
कुछ गिरने लगता है
वह कुछ तुम्हारा ही स्वत्व ....
मैं सहजता के लिए खामोश रहती हूँ
फिर मोड़ देती हूँ बातों की दिशा
क्योंकि मुझे अच्छा नहीं लगता
तुम्हारा खुद को खुद से सफाई देना !
तुम्हारी कमजोरी मुझे मालूम है
तुम्हारे हर बदलते तेवर की पहचान भी मुझे है
.... मुझे मालूम है विचलित शब्दों की
अन्यमनस्क दशा
तो मुझे सही लगता है अपना मौन
क्योंकि अगर कुछ भी कहा ..
तो तुम्हारे मन की ही शक्ल ले लूँगी
और तब बुरा होगा !
मन तो अन्दर ही अन्दर सवाल खड़े करता है
मन के लिबास में मैं
सुनाई देने लगूंगी
और तब तुम सारी चीजें पलट दोगे
गतांक से तुलना करने लगोगे
और मैं ... एक कतरा और खो जाऊँगी
क्योंकि मेरे किसी गतांक में तुम नहीं
तो मैं भी नहीं ...
.............
हमारे हिस्से तो महज पगडंडियाँ थीं
जिन्हें हम अर्थ नहीं दे सके
रास्ते बनाना मुमकिन नहीं हुआ ...
लेकिन पगडंडियों पर 'उसकी' कृपा रही
तभी
'वह ' अपनी हथेली की लकीरों में
उन पगडंडियों को लेकर आया
अब हमें उन लकीरों को रास्ते बनाने हैं
यानि 'उसकी' हथेली पर चलना है !
मेरे भीतर कोई सवाल नहीं
स्पष्ट हैं दिशाएं
प्रयोजन तो 'उसने' खड़े किये हैं
तर्क कैसा और किससे ?
तो अच्छी लगने लगी है
फिर ये ख़ामोशी .......
रास्ते बने तो बेहतर
वरना पगडंडियाँ तो आज भी अपनी ही हैं !!!


दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...