16 नवंबर, 2012

(कुछ देर के लिए ही सही)


एक गलती 
सौ प्यार 
प्यार भूलकर 
गलती की ताउम्र सज़ा ...
कोई निष्ठुरता से ऐसा न्याय कैसे कर सकता है !

प्यार में तो उस अनुपात से लेन देन नहीं करते 
फिर एक गलती में 
विशेष शब्द वाणों का 
भाव भंगिमाओं का प्रयोग क्यूँ !

राम को कैकेयी ने वनवास भेजा 
दशरथ की मृत्यु हो गई 
..... पर राम ने कैकेयी की अवहेलना नहीं की 
यह सच भी प्रबल है  
कि कैकेयी ने राम को बहुत प्यार दिया 
बिना किसी भेदभाव के ...

बात सिर्फ क्षणांश की है 
क्षणांश के लिए 
मति किसकी नहीं मारी जाती 
कैकेयी का मन भी असुरक्षित भाव लिए 
मंथरा बन बैठा 
दशरथ को बचानेवाली कैकेयी 
दशरथ का काल बन गई 
भरत ने धिक्कारा 
पूरी अयोध्या ने धिक्कारा 
पर राम ने भरी सभा में उन्हें सम्मान दिया 
कौशल्या से पूर्व उनके पांव छुए 
......
कौशल्या भी तो हैरान ही थीं 
कैकेयी की मांग सुनकर ...
 पुत्रवियोग,पतिशोक में होकर भी 
उन्होंने कैकेयी के प्रेम को नहीं नकारा 
राम ने पहले कैकयी को प्रणाम किया 
इसका उन्हें तनिक भी क्लेश नहीं हुआ 
.... 
कान खींचने से 
क्षणिक आवेश में माँ के यह कहने से 
कि 'मर जा तू'
माँ बुरी नहीं होती 
न उसका कहा श्राप होता है 
फिर उससे परे स्नेहिल सम्बन्ध 
शक के घेरे में कैसे घिर जाते हैं ?!
....
यह प्रश्न विचारणीय है 
युवाओं के लिए,
बुजुर्गों के लिए 
कि एक क्षण में सारी लकीरों को मटियामेट कर देना 
न सही निर्णय है,न उचित संस्कार !
...........
वक़्त का रोना 
अकेलेपन का रोना लेकर बैठने से बेहतर है 
हम चिंतन करें 
आत्मचिंतन में ही रास्ते हैं 
और इन्हीं रास्तों में सुकून (कुछ देर के लिए ही सही)

15 नवंबर, 2012

ग़लतफ़हमी ना हो :)

मेरा नेट बहुत स्लो है :( .... देखते रहो .... 
तो पढ़ना -लिखना कठिन है .मैं कामयाब कोशिश में रहूंगी,इत्तिला कर दूँ ताकि ग़लतफ़हमी ना हो :) इसी सूचना में एक घंटे से लगी हुई हूँ 

12 नवंबर, 2012

एक वसीयत (बच्चों के नाम)



बहुत सोचा - बहुत 
एक वसीयत लिख दूँ अपने बच्चों के नाम ...
घर के हर कोने देखे 
छोटी छोटी सारी पोटलियाँ खोल डालीं 
आलमीरे में शोभायमान लॉकर भी खोला 
....... अपनी अमीरी पर मुस्कुराई !
छोटे छोटे कागज़ के कई टुकड़े मिले 
गले लगकर कहते हुए - सॉरी माँ,लास्ट गलती है 
अब नहीं दुहराएंगे ... हंस दो माँ '
अपनी खिलखिलाहट सुनाई दी ...
ओह ! यानी बहुत सारी हंसी भी है मेरी संपत्ति में !
आलमीरे में अपना काव्य-संग्रह 
जीवन का सजिल्द रूप ...
आँख मटकाती बार्बी डौल 
छोटी कार - जिसे देखकर ये बच्चे 
चाभी भरे खिलौने हो जाते थे 
चलनेवाला रोबोट 
संभाल कर रखी डायरी 
जिसमें कुछ भी लिखकर 
ये बच्चे आराम की नींद सो जाते थे ...
मैंने ही बताया था 
डायरी से बढकर कोई मित्र नहीं 
..... हाँ वह किसी के हाथ न आये 
और इसके लिए मैं हूँ न तिजोरी '
पहली क्लास से नौवीं क्लास तक के रिपोर्ट कार्ड 
(दसवीं,बारहवीं के तो उनकी फ़ाइल में बंध गए)
पहला कपड़ा,पहला स्वेटर 
बैट,बौल ... डांट - फटकार 
एक ही बात - 
जो कहती हूँ ... तुमलोगों के भले के लिए 
मेरा क्या है !
अरे मेरी ख़ुशी तो ....'
मुझे घेरकर 
सर नीचे करके वे ऐसा चेहरा बनाते 
कि मुझे हंसी आने लगती 
उनके चेहरे पर भी मुस्कान की एक लम्बी रेखा बनती ...
मैं हंसती हुई कहती -
सुनो,मेरी हंसी पर मत जाओ 
मैं नाराज़ हूँ ... बहुत नाराज़ '
ठठाकर वे हँसते और सारी बात खत्म !
ये सारे एहसास भी मैंने संजो रखे हैं 
....
बेवजह कितना कुछ बोली हूँ 
आजिज होकर कान पकड़े हैं 
फिर बेचैनी में रात भर सर सहलाया है ..
मारने को कभी हाथ उठाया 
तो मुझे ही चोट लगी 
उंगलियाँ सूज गयीं 
.... उसे भी मन के बक्से में रखा है ....
....
वक़्त गुजरता गया - वे कड़ी धूप में निकल गए समय से 
आँचल में मैंने कुछ छांह रख लिए बाँध के 
ताकि मौका पाते उभर आये स्वेद कणों को पोछ सकूँ ...
... 
आज भी गए रात जागती हुई 
मैं उनसे कुछ कुछ कहती रहती हूँ 
उनके जवाब की प्रतीक्षा नहीं 
क्योंकि मुझे सब पता है !
घंटों बातचीत करके भी 
कुछ अनकहा रह ही जाता है 
.....मैंने उन अनकही बातों को भी सहेज दिया है 
............
आप सब आश्चर्य में होंगे 
- आर्थिक वसीयत तो है ही नहीं !!!
ह्म्म्मम्म - वो मेरे पास नहीं है ...
बस एहसास हैं मासूम मासूम से 
जो पैसे से बढ़कर हैं -
थकने पर इनकी ज़रूरत पड़ती है 
बच्चों को मैं जानती हूँ न 
शाम होते मैं उन्हें याद आती हूँ 
तकिये पर सर रखते सर सहलाती मेरी उंगलियाँ 
.... उनके हर प्रश्नों का जवाब हूँ मैं 
तो सारे जवाब मैंने वसीयत में लिख दिए हैं 
- बराबर बराबर ........

07 नवंबर, 2012

ना मैं बुद्ध हूँ ना वे अंगुलिमाल


मैं सच में बुरी हूँ 
बुरे लोगों में हिम्मत नहीं होती 
धडल्ले से गालियाँ देने की !
अनुमानित सोच पर 
किसी की इज्ज़त का जनाजा निकालने की !

अच्छे, संस्कारी लोग 
अनुमानित आधार पर 
कभी भी,कहीं भी 
कुछ भी कहने का अधिकार रखते हैं 
कुछ भी खुलासा करते हैं ...
वे पूरे दिन 
कभी कभी रात में भी 
पुलिस का धर्म 
कानून का धर्म निभाते हैं !
कौन क्या है 
- इसका पूरा लेखा-जोखा 
इन अच्छे लोगों के पास होता है !

बिना राम नाम सत्य बताये 
ये सम्मान की अर्थी निकाल देते हैं 
हर उस दरवाज़े पर भीड़ लगी होती है 
जो जनाजे के इंतज़ार में होते हैं 
- एक वक्र मुस्कान 
इनकी पुश्तैनी सम्पत्ति है 
फिर भी दरियादिली से ये अर्पित करते हैं ...
......

मेरे पास इतनी गैरत कहाँ 
न आंसू बहाती हूँ 
न जख्मों को दिखाती हूँ 
कम्माल की बुरी हूँ न 
गलती नहीं हो तो भी क्षमा मांग लेती हूँ 
शुभकामनायें देती हूँ 
ओखल में सर देकर कहती हूँ मुसल से 
.... आशीषों के सिवा कुछ भी नहीं मेरे पास 
..........
पर ,,,,,,,,,,,,,
ना मैं बुद्ध हूँ 
ना वे अंगुलिमाल 
.....
वे तो बस अच्छे हैं 
और मैं बुरी !!!

03 नवंबर, 2012

अंगारों पर चलना प्रभु का आशीष है



ज़िन्दगी से हार कैसी !
वह तो सारे प्रश्नों के हल 
जीने के सारे तरीके 
पहले ही बता देती है ... !!!
जन्म के साथ रुदन ना हो 
माँ को मृत्यु की चौखट ना दिखे 
फिर बच्चे की रुलाई में 
संजीवनी का एहसास मुमकिन नहीं 
संजीवनी के बिना 
जीवन का आरम्भ ही नहीं !

जीने के लिए 
मारना,पीटना,
काटना,कटना,
छिलके उतारना,
धोना, पिसना  
अंगारों पर चढ़ना 
मूल मंत्र है ....
जीवन पेट की भूख है 
भूख को शांत करो 
तो ही जीवन है 
और खाने के लिए 
अनाज,फल .... सबको 
एक प्रक्रिया से गुजरनी पड़ती है 
कहाँ आंच तेज होनी चाहिए 
कहाँ कम - 
ध्यान रखना पड़ता है ... 
खाने का स्वाद हम तय कर लेते हैं 
तो हमारे लिए 
ईश्वर,माता-पिता,गुरु,समयचक्र 
...इसे तय करते हैं 
छालों से यदि डर गए
थक गए 
खून देखकर सहम गए 
तो हम क्या अर्थ पाएंगे !

जीवन का एक सुनियोजित अर्थ है 
जिसे पाने के लिए 
सम्बन्ध जुड़ते हैं 
तो टूटते भी हैं 
जन्म लेते हैं तो मरते भी हैं ...

भ्रष्टाचार से पैसे पाना आसान है 
पर नाम वही अर्थ पाते हैं 
क़दमों के निशाँ वही अनुकरणीय होते हैं 
जो खुद को साधते हैं 
तपते हैं ....
तर्कसंगत विद्वता की बातें 
जितनी भी कर लें हम 
पर इस सच से इन्कार कौन करेगा 
कि हम अपने बच्चों के नाम में 
इन्हीं कर्मों से एहतियात बरतते हैं 
राम,सीता,एकलव्य,कर्ण,कल्याणी,....
जैसे नाम रखते हैं 
रावण ,शूर्पनखा ... जैसे नाम नहीं 
आग लगाना,
अंगारों पर चलना 
दो उपक्रम हैं 
... अंगारों पर चलना प्रभु का आशीष है 

01 नवंबर, 2012

कई बीघे जमीन की स्वामिनी




रात दिन बच्चों के भविष्य को 
स्वेटर के फंदों सी बुननेवाली माँ 
जब बच्चों से कुछ सीखती है 
अपने नाम का कोई फंदा उनकी सलाई पर देखती है 
तो काँपता शरीर गर्मी पा 
स्थिर हो लेता है 
और माँ कई बीघे जमीन की स्वामिनी हो जाती है ...

बच्चे जब घुड़कते हैं  
हिदायतें देते हैं 
तो माँ का बचपन लौट आता है 
सफ़ेद बालों का सौंदर्य अप्रतिम हो उठता है ...
....
एकमात्र संबोधन - 'माँssss' .......
लाल परी की छड़ी सा होता है 
पुकारो ना पुकारो 
माँ सुन ही लेती है ...
उसकी हर धड़कन 
इस पुकार का महाग्रंथ होती है 
जिसके हर पन्नों पर 
दुआओं के बोल होते हैं ...
काला टीका 
रक्षा मंत्र के रूप में 
माँ प्राकृतिक अँधेरों के आँचल से 
हंसकर चुरा लेती है !
ऐसी छोटी छोटी चोरियां 
बच्चे के एक सच के लिए सौ झूठ बोलना 
माँ के अधिकार क्षेत्र में आता है 
बच्चे पर आनेवाले दुःख को 
जादू से आँचल में बांधना 
माँ को बखूबी आता है 
अमरनाथ गुफा सी क्षमता 
माँ के प्यार में होती है ...

उसी माँ के लिए 
बच्चे जब गुफा बन जाते हैं 
तो शरद पूर्णिमा की चांदनी 
माँ का सर सहलाती है 
जागी हुई आँखों में भी 
कोई थकान नहीं होती 
माँ ....
वह उस गुफा में 
नन्हीं सी गिलहरी बन जाती है 
बच्चों का प्यार
मजबूत टहनियों की तरह 
माँ का ख्याल रखते हैं 
ऊन के फंदों की तरह 
माँ का सुख बुनते हैं 
अपनी अपनी सलाइयों पर 
और माँ -
बोरसी सी गर्माहट लिए 
अपने बुने स्वेटरों की सुंगंध में 
निहाल हो खेलती है 
नए ऊन के रंगों के संग 
नए सिरे से ....

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...