30 अप्रैल, 2016

निर्बाध,अनवरत ... प्रलाप













वे जो अपने हैं
वे जो अपने नहीं थे
उसके बीच खड़ी मैं
निर्बाध
अनवरत  ... प्रलाप करती हूँ
खुद में सुनती हूँ !
आवाज़ की छोटी छोटी लहरें
स्थिर चेहरा
शनैः शनैः बढ़ता आवेग
अस्थिर मानसिक स्थिति
खोल देती हूँ वो सुकून की खिड़कियाँ
जिन्होंने मुझे जीने की शीतल चाह दी
प्राकृतिक स्थितियों को डावांडोल होने से बचाया
....
सुनामी की स्थिति छंटने लगती है
सत्य सरस्वती की तरह
गंगा-यमुना सी कहानी के मध्य
स्थिर सा प्रवाहित होने लगता है
...
तदनन्तर
सुनने लगती हूँ  अनुत्तरित सवालों के
अडिग,अविचलित जवाब
आंतरिक मुक्ति
और ईश्वर के अधिक साथ होने की स्थिति
मुझे और सशक्त करती है
जो कत्तई निर्विकार नहीं
क्षण क्षण लेती है आकार
ईश्वर की अदृश्य प्रतिमा गढ़ते हुए  ... !

ब्रह्ममुहूर्त में जाग्रत मेरा मैं'
गंगा में गहरी डुबकी लगाता है
मौन लक्ष्य का शंखनाद करता है
प्रत्यक्षतः
मैं अति साधारण
करती हूँ
निर्बाध
अनवरत  ... प्रलाप
गढ़ती हूँ अनुत्तरित सवालों के जवाब
जो गंगा का आह्वान करते हैं
शिवलिंग की स्थापना करते हैं
माँ दुर्गा की भुजायें निर्मित करते हैं
सरस्वती की वीणा को झंकृत करते हैं
विलीन हो जाते हैं ॐ में  ...
वे जो अपने हैं
वे जो अपने नहीं थे
उनके बीच !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...