29 सितंबर, 2016

आदिशक्ति



माँ कमज़ोर नहीं होती
लेकिन माँ माँ होती है
एक तरफ मोम सी आँखें पिघलती हैं ज़रूर
पर यकीनन वह अँधेरे से लड़ती है  ... !
डर जाना
डर लगना तो एक आम बात है
लेकिन आग के दरिया को
वह हर हाल में पार करती है
...
माँ अपने आप में दुआओं का धागा है
मन्नत पूरा करनेवाला वृक्ष भी स्वयं
बाँध देती है अपने आप को
हर तने से
अधूरे मन्त्रों का जाप
वह इतनी निष्ठा से करती है
कि सरस्वती खुद
साथ साथ मंत्रोच्चार करती हैं

माँ ध्यानावस्थित होती है
चलायमान दिखती है
महिषासुर का वध करती है
गणेश की रचना करती है
माँ प्रकृति के कण कण से
आशीषों का शंखनाद करती है
.... बावजूद इसके
वह दिखती है कई बार काँपती हुई
लेकिन गौर करना -
हर कम्पन में रक्षा मन्त्र होता है
तभी तो
वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आदिशक्ति है।

27 सितंबर, 2016

अपनी धुन


मैं भोर की पहली किरण बनने की धुन लिए
घोसले में सुगबुगाती हूँ
देखती हूँ चहचहाते हुए विस्तृत आकाश
पंख फड़फड़ाते हुए
दाने की तलाश में
डाली डाली होकर
सतर्क दृष्टि लिए
उतरती हूँ धरती पर
निरंतर दाने इकट्ठे करती हूँ
बच्चों की भूख बहुत मायने रखती है
....
 बच्चों के पंख सशक्त हैं,
फिर भी शिकारी शिकारी है
माँ माँ है   ...
क्षमता जब तक है
विस्तार नापना है
रसोई की आग बनना है
पानी की किल्लत हो
तो आँसुओं के अनुवाद से
प्यास बुझाना है !

सूरज जब सिर पे होता है
तात्पर्य यह
कि जब उसकी प्रचंडता बीचोबीच होती है
मैं बरगद
या फिर
बादल का एक टुकड़ा बनकर
दिनचर्या में ढल जाती हूँ
थकान के गह्वर से
ऊर्जा लेकर
ढलते सूरज से होड़ लगाती हूँ
कहती हूँ,
शाम रात के मिलन में
मैं अब भी पहली किरण के राग परिधान में हूँ
तुम पूरब से पश्चिम तक प्रखर हो
मैं उत्तर और दक्षिण से भी निःसृत हूँ !

भूख सिर्फ पेट की नहीं होती
प्यास सिर्फ गले की नहीं होती
जिह्वा सूखती है
जब -
अनगिनत अनर्गल प्रश्नों का सैलाब
नागपाश की तरह जकड़ लेता है
घोंसले में सुगबुगाकर भी
चहचहाहट पर नियंत्रण रखना होता है
गीता के पन्नों को छूते हुए
झूठ बोलना होता है
ब्रह्ममुहूर्त की रक्षा में
सूर्य को निश्चित समय पर अर्घ्य देने के लिए
सपनों के मानसरोवर तक उड़ना होता है  ...

मैं कभी वाष्पित होती हूँ
कभी बाँध तोड़ उमड़ती हूँ
पर इन सबसे परे
एकमुखी रुद्राक्ष मेरे मन में उगता है
सम्पूर्ण वृक्ष
मेरे मान्त्रिकआह्वान से सम्पूर्णता को पाता है
मेरे विश्वास का दसवाँ रूप
परिस्थितिजन्य लंका को अग्नि के हवाले करता है
भक्त और पूज्य दोनों होता है  ...

मैं चाँद की माँ बन
उसके अनुसंधानिक सत्य पर
मरहम लगाती हूँ
ताकि वह अपने दोनों पक्ष
 - शुक्ल एवम कृष्ण की महत्ता याद रखे
कौन उस तक आया
किसने पहला कदम रखा
कैसे उसका सहज रिश्ता खत्म हुआ
इस उधेड़बुन के दर्द में वो ना रहे
... बच्चे मासूम होते हैं
और वे आज भी उसे देख किलकते हैं
मामा' सुनकर ही देखते हैं
आज भी ईद और पूर्णिमा का चाँद
लोगों की आँखों में थिरकता है
उसका गुम होना
कृष्ण को ले आता है  ...

फिर मैं बाँसुरी बन
कृष्ण की पकड़ में होती हूँ
राधा को छेड़ती हूँ
अपनी धुन पर इतराती हूँ  ...

20 सितंबर, 2016

बुद्धि का शस्त्र उठाओ




कृष्ण ने कहा,
"अर्जुन उठो
गांडीव उठाओ
अपने धर्म को निभाओ
अन्यथा,
यह सच है
कि मैं यदि तुम्हें गीता सुना सकता हूँ
तो रथ का पहिया उठाकर
सबको परास्त कर सकता हूँ
शस्त्र उठाने का एक मौका तक नहीं दूँगा
यदि मैं अपने 'मैं' पर आ गया
... !!!
पर,हर न्याय के लिए
पात्रता अपनी होती है
ईश्वर सारथि होते हैं
!
अर्जुन,
साथ वो नहीं होता
जो तुम्हें तूफ़ान से बाहर ले आये
सही साथ वह है
जो तुम्हें तूफानों को चीरकर बढ़ना बताये  ...
...
मृत्यु सबकी तय है
डरो या निडर रहो
उसे आना ही है
वक़्त निर्धारित है
आज नहीं तो कल
तो उठो,
व्यक्तिविशेष के लिए नहीं
अन्याय के विरुद्ध शंखनाद करो
शस्त्र उठाओ।

सभा में जो कुछ भी हुआ
क्या वह तर्कसंगत
या न्यायसंगत था ?
पांचाली की चीख
सभा की ख़ामोशी
और तुमसबो का बुत बने रहना
इतिहास के पन्नों को
सुलगते प्रश्नों से रेखांकित करता है
पार्थ
युद्ध का आरम्भ सत्य के लिए होता है
युद्धोपरांत सत्य उजागर होता है
इसलिए उठो
और बुद्धि का शस्त्र उठाओ  ...

16 सितंबर, 2016

एक रहस्यात्मक पन्ना




मन .... एक रहस्यात्मक पन्ना 
जिसे दूसरा लाख पढ़ ले 
अधूरा ही होता है 
अपने रहस्य को खुद से बेहतर 
कोई नहीं जानता !
मन सपने बनाता है
पर दूसरी छोर पर
अज्ञात,ज्ञात आशंका लिए
सपनों के टूट जाने की दर्दनाक स्थिति को जीता है !
शरीर के परिधान से
मन का परिधान मेल नहीं खाता
लाल रंग भरनेवाला चरित्र
श्वेत की चाह में जीता है
इसे जान पाना असम्भव है
चाह बता भी दे व्यक्तिविशेष
तो भी .....
चाह स्थाई है या अस्थाई
इसे समझना मुश्किल है !
ज़रूरी नहीं न
कि हरी भरी धरती ही सबको भाये
बंजर धरती का आकर्षण
कर्मठ योजनाओं को मूर्त रूप देने के
अनगिनत विकल्प देती है !
अपनी मंशाओं को जीने के लिए
कीमती,दुर्लभ उपहार कितने भी दिए जाएँ
मन उसे एक नहीं
कई बार अस्वीकार करता है
रख देता है उसे किसी कोने में
दे देता है किसी और को
तरीके में लौटाई गई मुस्कान
मन से अलग थलग
सच्चाई से कोसों दूर होती है !
मन कितना भी सोचे
पर जीता है वह अपने को ही
नफरत,प्यार,अधिकार,उदासीनता
उसकी अपनी होती है
वर्षों साथ रहकर भी
वह साथवाले से दूर
बहुत दूर होता है
साथ दिखावा है
मन तठस्थ है
प्रत्यक्ष का चश्मदीद गवाह
अप्रत्यक्ष मन होता है
उसकी अप्रत्यक्ष गवाही में
उसका न्याय होता है
जहाँ कानून की देवी आँखों पर पट्टी नहीं बांधती
......
हाँ - ज़ुबान पर संस्कारों की असंख्य पट्टियां होती हैं
जिसे खोलने का साहस
पूर्णतः
किसी में नहीं होता
........... मुमकिन भी नहीं ....
कहीं मोह,कहीं भय,कहीं जिद
इन सारे बन्धनों में
उठते क़दमों को
मन अपने हिसाब से तय करता है
शकुनी के दुर्लभ पासे
उसके अन्दर हर वक़्त जुआ खेलते हैं
कभी खुद से
कभी औरों से
कभी ज़िन्दगी से ....
अपनी रहस्यात्मक सुरंगों से
अनभिज्ञ भिज्ञ मन
सुरंगे बनाता जाता है ...
हर दिन तो वह स्वयं सभी सुरंगों में नहीं चल पाता
तो कई योजनायें धरी की धरी रह जाती हैं
क्योंकि सभी रहस्यों का पटाक्षेप करता यमराज
मन को समझने की जद्दोजहद नहीं उठाता
और पन्ने - अधलिखे,अधपढ़े,अनपढ़े रह जाते हैं
कई रहस्यों को दफ़न किये हुए !!!
...................................................कैसे पढोगे ???
कैसे जानोगे -
तुम मैं हमसब अपने मन में उलझे हुए हैं
मकड़ जाले से अधिक महीन जाल बुनते हुए
और रहस्यों से भरी भूलभूलैया में
खुद में खुद को खोते हुए ...
नियति यह
कि पन्ने फाड़े भी नहीं जा सकते
शायद तभी
मन की इस दयनीय स्थिति से मुक्त होने का मंत्र है
'राम नाम सत्य' ....

13 सितंबर, 2016

मन की विक्षिप्तता परिवर्तन की स्थिति है



जब जहाज डूबने का मंज़र होता है
तो निश्चेष्ट मन शरीर से गतिशील होता है
एक नहीं
खुद पर आश्रित कई यात्रियों को बचाता है
क्योंकि और कोई हो न हो
देवता साथ होते हैं
उनके साथ भी जो बचाते हैं
और उनके साथ भी जो बच जाते हैं !

मन की तूफानी स्थिति में
कुछ भी बेकार नहीं होता
हर दबी हुई चीख
जम गई धूल को
 करीने से साफ़ करती है
खिड़की दरवाजों को
बेबस होकर ही सही
सख्ती से बन्द करती है
फिर अँधेरे कमरों में
हौसलों के दीप प्रज्ज्वलित करती है  ...

हमें लगता है -
"हम पागल हो रहे हैं"
पर दरअसल हम
पागलपनी से बाहर निकल रहे होते हैं !
अच्छी भावनाओं के अतिरेक पर
नियंत्रण ज़रूरी होता है
और यह तभी होता है
जब हम औंधे मुँह गिरते हैं
आश्चर्य का रक्त तेजी से प्रवाहित होता है
प्रश्नों का प्रलाप होता है
सबकुछ व्यर्थ लगता है
लेकिन सुबह का सूरज
तभी अँधेरे को चीरकर निकलता है !!

जुगनू राह दिखाता है
विनम्रता सुकून देती है
लेकिन अँधेरे को दूर करने के लिए
सूरज का आना ज़रूरी है
अपमान के आगे विनम्रता
महज कायरता है !

जब तक रहे श्री कृष्ण संधि प्रस्ताव लिए
दुर्योधन ने उनको बाँधने की धृष्टता दिखाई
एक विराट स्वरुप के आगे
पूरी सभा सकते में आई
...
कुरुक्षेत्र एक तूफ़ान था
अर्जुन के मन के हर उथलपुथल के आगे
कृष्ण खड़े थे
विश्वास रहे
तूफ़ान,
मन की विक्षिप्तता
 परिवर्तन की स्थिति है
बन्द रास्तों की चाभी इसी तरह मिलती है  ...

10 सितंबर, 2016

इसे हार नहीं कहते



मैं तो ज़िंदा हूँ 
फिर खाली हो गए कमरे सा 
मेरा अंदरूनी हिस्सा गूंज क्यूँ रहा है !
भूलभुलैये सा बन गया मस्तिष्क 
जाने किन बातों के जाल में 
खो सा गया है !
... 
ढूँढ रहा है मुझे 
मेरे नाम को 
मेरी मेडल सी हँसी को 

पीछे से एक अपनी सी आवाज़ गूँजती है 
... सेल्फ रेस्पेक्ट को दाव पर मत लगाओ 
... सन्न सा मन 
एक नज़र सेल्फ रेस्पेक्ट पर डालता है 
फिर ताखे पर रखे मोहबंध पर 
जाने मन बड़बड़ाता है 
या ज़ुबान से कुछ सुलझे-उलझे शब्द निकल रहे हैं !
जो भी हो, 
इसे हार नहीं कहते 
जीते हुए के साथ 
जो बाज़ी खेली है दूसरों ने 
वह सरासर बेईमानी है !

09 सितंबर, 2016

"खिड़की से समय"





















कई बार बहुत कुछ ऐसा होता है, जो जानबूझकर नहीं होता, पर हम मान लेते हैं और दुखी हो जाते हैं  ,,, पर, इस दुखी होने में भी बहुत फर्क है, एक में हम चुप्पी साध लेते हैं और संबंधों की इतिश्री कर लेते हैं, जो दरअसल सिर्फ इम्तिहान पर टिके होते हैं,  ... पर एक दुःख में हम शिकायत कर लेते हैं, जो अधिकार है।
कुछ ऐसा ही अधिकार जताया अरुण चन्द्र राय ने  ... कुछ इस तरह,

"namaskar rashmi ji.. apne meri kitab par ek shabd bhi nahi kahe... और विडम्बना देखिये  कि मेरी औसत सी कविताओं के संग्रह को फेमिना ने साल के चुनिंदा किताब में शामिल कर लिया है।  बधाई तो दे दीजिये। "
बधाई तो मैंने दी थी, लेकिन खिड़की से बाहर समय इतनी द्रुत गति से चल रहा था मेरी अपनी जिम्मेदारियों के मध्य कि मुझे याद नहीं रहा कि उन्होंने अपनी किताब "खिड़की से समय" मुझे भेजी थी, पता मैंने ही दिया था  ... लेकिन नानी / दादी बनने के क्रम में सब भूल गई थी।  

अरुण जी ने ही याद दिलाया कि किताब तो जनवरी में ही आपने पाने की सूचना दी थी, शर्मिंदा भी हुई लेकिन एक अनुभवी ही खिड़की से समय को देखता है और दूसरे के समय को समझ पाता है !  ... खैर, जहाँ मैं किताबों को सहेजकर रखती हूँ, वहाँ से इस किताब को निकाला, सच कहूँ  - थोड़ा डर लगा था, कहीं मैंने खो तो नहीं दिया।  अपनी तरफ से मैं कभी कोई ग़लतफ़हमी नहीं बुनना चाहती, बन जाए तो दुःख होता है !
अरुण जी ने इस किताब में बड़े स्नेह से लिखा है,
"खिड़की से आता हुआ समय
लेकर आता है
नई रौशनी
नई आशाएँ
नई उम्मीद  ...
इस किताब को मैं कैसे भूल गई !

समीक्षा तो मैं करती नहीं, बस अनुरोध करुँगी सबसे कि "खिड़की से समय" को पढ़िए  कील पर टँगी बाबूजी की कमीज से रूबरू होइए    ...
हर रचना में अरुण के जीए हुए पल उभर कर आये हैं,

ज्योतिपर्व प्रकाशन से प्रकाशित इनकी पहली कविता संग्रह "खिड़की से समय" को फेमिना हिंदी ने साल के बेहतरीन कविता संग्रह के रूप में चुना है और सितंबर माह में कवर स्टोरी में स्थान दिया है।

ईश्वर आपकी कलम को और निखारे :)

07 सितंबर, 2016

अंदर की कमज़ोरी कठोर ही जानता है




कमज़ोर होना नहीं चाहना
वैसा ही है
जिस तरह -
वृद्धावस्था,
रुग्णता,
मृत्यु से विक्षुब्ध सिद्धार्थ
मोहबंध से निकल गए
यशोधरा और राहुल को छोड़कर
!!!
क्या सच में ?
मन के भीतर
इस रिश्ते से निकल सके सिद्धार्थ बुद्ध होकर ?

निकल जाते तो ज्ञान पाकर
घर न लौटते
यशोधरा की व्यथा की फटकार न सुनते
राहुल को
यशोधरा को
अपने साथ न ले जाते !

ज्ञान सत्य का था
बुद्ध को सत्य मिला
सत्य मृत्यु है
जीवन क्षणिक है
तो मोहबंध भी एक सत्य है
जो कमज़ोर बनाता ही है
ऊपर की कठोरता
कुछ भी कहे
अंदर की कमज़ोरी कठोर ही जानता है
नारियल की तरह  ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...