02 दिसंबर, 2016

कुछ तो रह जाता है ...




पर उसके शरीर से लगे थे
उसके  ...
यानि उस स्त्री के
वह -
जो चाहती थी उड़ना
लेकिन उसे किसी ने बताया ही नहीं
कि उसे उड़ना है
वह उड़ सकती है !

उसे तो गुड़िया घर से उठाकर
दान कर दिया गया
शालीनता,
सहनशीलता का
पाठ पढ़ाया गया
जैसे बड़े बुज़ुर्ग कहते थे
कि लड़के रोते नहीं
वैसे गाँव घर की औरतें
दाँत पिसती हुई कहती थीं
- लड़कियाँ
खी खी खी खी
हँसती भली नहीं लगतीं
हँसने की आवाज़
किसी और को सुनाई दे जाए
तब तो बेशर्मी की हद !!!
ऐसी मानसिकता में
उसे पंख का ज्ञान भला कौन देता !

पता नहीं,
यह दुबके रहने की प्रथा कहाँ से आई
........ !!!

स्त्री को मन्त्र मिला
सती होने का
चिर वैधव्य निभाने का
वंश देने का
इज़्ज़त की धज्जियाँ उड़ानेवाले
जेठ देवर की सेवा करने का
सबको खिलाकर
बचाखुचा खाने का
खत्म हो गया हो खाना
तो भूखे पेट सोने का  ...

मन के विरुद्ध
सीखों का कूड़ा जमता गया
दुर्गन्ध से स्त्री उजबुजाने लगी
पागलों की तरह चीखने लगी
दहलीज़ लाँघकर
सड़क पर दौड़ गई
बिखरे बाल
फड़कते नथुने
एक ज्वालामुखी बन गई वह !
... किसी ने पागल कहा
किसी ने बदजात
किसी ने चुड़ैल-डायन
-
प्यार करनेवाली माँ ने कहा,
"लगता है देवी आ गईं !"

सुनते ही,
पूरा समाज डर गया
चरणों में झुक गया
और बेबस खड़ी
बहुत सारी स्त्रियों को
एक रास्ता मिल गया
भरपेट खाने का
सेवा पाने का
सुख से सोने का  ...

एक घर बाद के घर में
देवी का आना शुरू हो गया
असहय पीड़ा में
वह गुर्राने लगी
रक्ताभ चेहरे में
रक्तदंतिका ही घूरने लगी
और बेबस स्त्री चैन से सोने लगी  ...

इसी नींद ने उसे सोचने को बाध्य किया
बोलने को उकसाया
अपने सपनों के लिए
पंखों को खोलना बताया
...
फिर एक दिन
वह उड़कर मुंडेर पर बैठी
अवलोकन किया
आँगन का
जिसमें वह फिरकी सी खटती थी
फिर देखा दालान की ओर
जहाँ जाने की उसे इज़ाज़त नहीं थी
हाँ खेतों पर
अधेड़ उम्र में
वह रोटियाँ लेकर जा सकती थी
वह भी चुपचाप
!!!
वह नहीं कह सकती थी
कि घर के अंदर वह एक चूल्हा थी
जिसमें लकड़ियाँ फूँककर जलाई जाती थी
काम होने के बाद
पानी डालकर उसे बुझा दिया जाता था
जली लकड़ियों का कोयला भी
काम में आता  ...
बिल्कुल गाय पर लिखे निबंध की तरह
उसका जीवन था !
यह सब सुनाना वर्जित था
यूँ कोई सुनता भी क्यूँ !!!

स्त्री ने आँखें बन्द कीं
और पंखों ने आकाश को नापा
आलोचना,
फिर ताली
फिर होड़
एक शहर से दूसरे शहर
स्त्री अकेली हो गई !

पैरों पर खड़ी होकर भी
उसे प्रश्नों के जवाब देने थे
खाना बनाना सीखा ?
शादी अब तक नहीं हुई ?
रात में कब तक लौटती हो ?
फिर घर ???
जवाब दिया उसने
लेकिन
सुननेवालों को तसल्ली नहीं मिली
ज़िद ने उसे उसके भीतर बन्द कर दिया
पंख होते हुए भी
उड़ते हुए भी
वह एक अजीब से पिंजड़े में कैद हो गई
अकेलेपन की तीलियों में
लहूलुहान होने लगी
....
एक स्त्री
पहचान लेती है अपना वजूद
दिखा देती है अपना वजूद
खाइयों को पार कर जाती है
हर क्षेत्र में उड़ान भरती है
फिर भी,
कुछ तो रह जाता है
लेकिन क्या !!!!

6 टिप्‍पणियां:

  1. >
    क्यों दोहरा देखना शुरु हो जाता है आदमी
    माँ बहन पत्नी चाहिये मगर बिना पंख के ।

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  2. लाख अड़चनों के बावजूद स्त्री न कभी पीछे नहीं हटी है, न उसने हार मानी है, निरंतर संघर्ष से उसने अपना मुकाम हासिल कर दुनिया को अपनी क्षमताओं से अवगत कराया है...

    बहुत सुन्दर

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-12-2016) को "ये भी मुमकिन है वक़्त करवट बदले" (चर्चा अंक-2546) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. रश्मि जी, नारी की स्थिति को बहुत हि खुबसुरती से बयान किया है आपने। आज नारी हर तरह के काम करती है, लेकिन सच में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ छुट जाता है।

    जवाब देंहटाएं

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