29 जून, 2018

राधाकृष्ण,रास




मैं राधा
माता कीर्ति
पिता वृषभानु की बेटी !

कृष्ण की आदिशक्ति
नंदगाँव और बरसाने की प्रेमरेखा !

मैं कृष्ण की आराधिका थी
या उनकी बाँसुरी
यमुना का किनारा
या कदम्ब की डाली
गोकुल की पूरी धरती
या माखन
उनके मुख में चमकता ब्रह्माण्ड
या उनको बाँधी गई रस्सी

या !!! 

... जो भी मान लो
मैं थी - तो कृष्ण थे
कृष्ण थे - तो मैं !
०००
जिस दिन कृष्ण ने जन्म लिया
उस दिन मैं अमावस्या थी
कारागृह के द्वार मैंने ही खोले थे
टोकरी की एक एक बुनावट में मैं थी
मूसलाधार बारिश की बूंदों में मैं थी
यमुना की उठती हिलोरों में मैं थी
पाँव छूकर
मैंने ही
अपने होने का हस्ताक्षर किया था
 ...
बरसाने में जन्म लेकर मैं
गोकुल की प्रतीक्षित देहरी बन गई  !
माँ यशोदा के आँगन में
कृष्ण के जो नन्हें पाँव मचले थे
उसके मासूम निशानों में मैं तिरोहित हो गई
....  रास की इस पहेली को समझ सका है कोई !?
०००
 सिर्फ ज्ञान  ...
मात्र एक भ्रम है
जो मान लेता है खुद को सर्वस्व !
इसीलिए
 कृष्ण ने
उद्धव को
अपने ज्ञान का प्रतिरूप  बनाकर
अहम से परे
मोह में स्वयं को उलझाकर
हर रिश्तों के मध्य
प्रेम क्या है
यह समझने के लिए भेजा
क्योंकि,
गीता सुनाने के लिए
उसे समझने के लिए
पहले प्रेम और रिश्तों को जीना होता है
पाने से कहीं अधिक
खोना पड़ता है !!

गोपिकाओं के निकट 
उद्धव के शरीर में
दरअसल
कृष्ण ने स्वयं को प्रस्तुत किया
जहाँ प्रत्येक गोपिकाओं में
मैं समाहित थी
कृष्ण ज्ञान बनकर प्रज्ज्वलित थे
मैं प्रेम की मूक आँखों से बरस रही थी
तभी तो
गोकुल में कृष्ण का एक रूप ठिठक गया
रास के इस रहस्य को समझ सका है कोई !?
०००
मिट्टी का स्वर्णिम शरीर थे
वासुदेव,देवकी
नंदबाबा,यशोदा
रुक्मिणी,सत्यभामा
बलराम,सुदामा,
रसखान, सूरदास 
मीरा  ....

मैं थी मिट्टी
जिसमें अपनी आँखों का पानी मिलाकर
 कृष्ण ने मुझे बनाया - राधा
 !!!
साधारण स्तर पर
हर किसी ने सोचा
कृष्ण ने मुझे छोड़ दिया  ...
यदि यही बाह्य सत्य था
तो देवकी और मथुरा के लिए
वासुदेव ने कृष्ण को
तूफानों के मध्य जो गोकुल पहुँचाया
वह क्या था ?
 माँ यशोदा
पूरे गोकुल को छोड़कर
अधर्म के नाश के लिए
कृष्ण जो मथुरा पहुँचे
वह क्या उनका स्वार्थ था ?

यदि
साधारण
या असाधारण रूप से
 ऐसा नहीं होता तब ???
तब क्या होता ?
क्या होना चाहिए था ?

इस त्याग रास को समझ सका है कोई !?
०००
कुरुक्षेत्र के मैदान में
जिस विद्युत गति से रथ को दौड़ाया कृष्ण ने
उसकी रास मैं थी
कृष्ण के अकेलेपन की सम्पूर्ण वेदना मैं थी
उनके विराट स्वरुप का चमत्कृत रूप मैं थी
उनके और द्रौपदी के मध्य चीर मैं थी
अनहोनी अपनी जगह थी
उसकी सकारात्मक होनी मैं थी
इस अद्भुत रास को समझ सका है कोई !?
०००
मैं बड़ी भी हूँ
छोटी भी हूँ
ज्ञानी भी हूँ
अज्ञानी भी
मैं हूँ शरीर कृष्ण की
और आत्मा हूँ राधा की
कृष्ण हैं मेरे रोम रोम में 
तो कृष्ण में लय राधा भी है
तुमसबको किस बात का विस्मय है ?!
तुम नहीं हो सकते कृष्ण कभी
ना मिल सकती कोई राधा
जिस रास का अर्थ तुम समझ ना सके
वहाँ कैसा रिश्ता
 कौन सा त्याग
और कैसी बाधा !
सोचो खुद में
और कहो जरा
इस रास को समझ सका है कोई !?
०००
हमारा एकांत
हमारा आध्यात्म था
हमारा रास
जीवन का सार था
अतिरिक्त कल्पना तो
मानव मन की उत्पत्ति है !
विवाह में
सिर्फ सात वचन नहीं होते
जीवन के समस्त मंत्र इसकी समिधा होते हैं
जहाँ सिर्फ दो व्यक्ति नहीं मिलते 
पूरा संसार एक होता है
राधेकृष्ण संसार की एकता का प्रतीक हैं   ...
वसुधैवकुटुंबकम "रास" है
गहरे उतरो ज्ञान और प्रेम के
फिर जानो
राधेकृष्ण का अर्थ क्या है
कृष्ण क्या हैं
राधा क्या है !!!

18 जून, 2018

ज़िन्दगी जीने के लिए खुद को खर्चना होता है !




पैसे से
तुम घर खरीद सकते हो
महंगी चीजें खरीद सकते हो,
लेकिन यदि तुम खुद को खर्च नहीं कर सकते,
तो घर को घर का रूप नहीं दे सकते !
पैसे से
तुम महंगे, अनगिनत
कपड़े खरीद सकते हो,
प्रसाधनों की भरमार लगा सकते हो,
लेकिन यदि तुम खुद को खर्च नहीं कर सकते,
तो उन्हें सम्भालकर नहीं रख सकते,
कमरा, आलमीरा कबाड़ बन जाएगा !
पैसे से
बच्चे के लिए तुम आया रख सकते हो
उसे महंगे खिलौने दे सकते हो
लेकिन यदि तुम खुद को खर्च नहीं कर सकते,
तो बच्चे के जीवन मे माँ और पिता की
सार्थक परिभाषा नहीं होगी,
एक खालीपन उसके अव्यक्त पलों में होगा ।
कम पैसे में
यदि तुम स्वयं को खर्च करते हो,
तो बासी रोटी ताजी रोटी से अधिक स्वादिष्ट होती है,
नमक-रोटी के आगे पकवान फीके हो जाते हैं ।
घर के हर कोने से जब तुम्हारी खुशबू उठती है,
बच्चा खुद को विशेष नहीं
स्वाभाविक प्राकृतिक महसूस करता है !
पैसा ज़रूरी है,
लेकिन ज़िन्दगी को जीने के लिए
खुद को खर्चना होता है !

15 जून, 2018

खुद तय करो, तुम क्या हो ।




मान लिया,
सामने रावण और शूर्पणखा हैं
तो उनके विनाश के लिए तुम्हें
रावण और शूर्पणखा नहीं बनना है
राम और लक्ष्मण बनना है ।
अपशब्दों से तुम सामनेवाले को नहीं,
स्वयं को खत्म कर रहे हो,
शब्दों के स्तर
तुम्हारे स्तर की गवाही देते हैं ।
युद्ध ज़रूरी है,
साम,दाम,दंड,भेद भी
लेकिन अश्लील शब्द
!!!
अगर श्री कृष्ण ने भी यही अपनाया होता
तो आज गीता का आध्यात्मिक,
सांसारिक आधार न होता ,
सत्य की कटुताएँ हैं गीता में
"तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो",
परंतु, कहीं भी ऐसे शब्द नहीं,
जिनको पढ़ने के बाद
वितृष्णा हो,
एक लिजलिजेपन का जन्म हो भीतर।
जो कर्तव्यहीन है,
वही अपशब्दों पर उतरता है
अश्लीलता की सारी सीमाएँ लांघ जाता है !
ऐसे में,
तुम खुद तय करो,
तुम क्या हो ।

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...