28 जनवरी, 2008

सौभाग्य ...



उपदेशक को नहीं भाता
उपदेश सुनना!
उपदेश देना उनका जन्म सिद्ध अधिकार होता है ...!!!
अक्सर ऐसा होता है
कि,
तथाकथित कर्मठ लोग
किसी के बहते खून से विचलित नहीं होते
दबाकर खून बंद करने की सलाह देते हैं
या अन्यमनस्क आंखों से
शब्दहीन घूरते रहते हैं.......
पर ऐसे कर्मठ भूशाई हो जाते हैं -
एक "फुंसी" से!
चेहरे की चमक गुम हो जाती है
सन्नाटा -सा छा जाता है
और सारे कर्मठ उनके इर्द -गिर्द बैठ जाते हैं
दर्द बाँट लेने को.......

ऐसे ही हालात थे
कुरुक्षेत्र के मैदान में
कर्तव्य,रिश्तों की रास थामे
पूरी सेना
दुर्योधन के साथ खड़ी थी,
और अर्जुन ने गांडीव नीचे रख दी थी!
रिश्तों की मर्यादा ,
संस्कारों के स्वर
बस अर्जुन के आगे खड़े थे....
सौभाग्य था_
गीता समझाने को
शक्ति बन श्री कृष्ण वहीं अड़े थे
और
सत्य की जीत की खातिर
पितामह बाणों की शय्या पर
जीवित रहे थे !!!!!!!!!!!..........

24 जनवरी, 2008

तीन स्तंभ !



















तुम
तीन,स्तंभ हो मेरी ज़िंदगी के,
जिसे ईश्वर ने विरासत में दिया .....

जाने कैसे कहते हैं लोग,
ईश्वर सुनता नहीं,
कुछ देखता नहीं ......

यदि यह सत्य होता,तो
मैं स्तंभ हीन होती।
तुम्हारे एक-एक कदम
मेरे अतीत का पन्ना खोलते हैं,
 पन्नों को देखकर,
फिर स्तंभ को देखकर
लोग नई बातें करते हैं......
यह दृष्टि-तुम्हारी देन है...

मेरी सफलता है यह
कि,
तुम संगमरमर से तराशे लगते हो
मेरा सुकून है-
तुम्हारे भीतर संगीत है प्यार का,तुम स्तंभ हो
मेरे सत्य का!

23 जनवरी, 2008

तुम्हारी सोच!!!


तुम्हारी नन्ही हथेली,
तुम्हारे नन्हें पांव,
तुम्हारी बिल्लौरी-सी चमकती आँखें,
तुम्हारा बचपन,
कैद रहा मेरे जेहन मे,
मेरे दिल मे,मेरे वजूद मे,..........
जो, मेरी सोच मे रंग लेता गया!
कब तुम्हारी ज़ुबान् कड़वी हुई,
कब तुम्हारी नज़रें तिरछी हुई,
कब तुमने "अपने घर" का वजूद कायम किया
मेरे मन को पता ही नही चला.........
पर,
जब मेरी सोच से भ्रम का पर्दा उतरा
तो आंसू कम पड़ गए......
मैंने अपनी इक्षाएं उढ़ेल दी थीं तुम्हारी खुशियों में,
जो भी किया,कम लगा.....
पर तुमने मेरी खुशियों को समझा तक नही,
औपचारिक चेहरा लेकर
टेढी मुस्कुराहट का जामा पहन लिया........
रोती हूँ,बहुत रोती हूँ पर अपनी सोच पर नही,
तुम्हारी सोच पर!!!

22 जनवरी, 2008

हरिनाम .......


ज़िंदगी विषमताओं ,विरोधाभासों से भरी थी,
कब सुबह हुई,
कब रात!
कुछ होश नही रहता था.....
अन्दर से आती दुर्गन्ध से जाना
सारी इक्षायें मर चुकी थीं ,
सड़ चुकी थीं......
उसके ऊपर सलाहों,ताने-बानों की
मक्खियाँ भिनभिना रही थीं.......
लेकिन कर्ण कवच ने साँसों की प्रत्यंचा थाम रखी थी!
युद्ध-भूमि मे उतरना था-
विश्वास करो या न करो ,
सारथी श्री कृष्ण बने
दिया उपदेश............
क्या है छल! क्या है भ्रम!........
विश्वास भरने को नरक का द्वार भी दिखाया...
जिन्हें महारथी माना था,
उनका असली रूप दिखाया-
फिर भी,
कमज़ोर मन कुतर्क करता गया ......
परेशान हरि ने तब पैसों की बारिश की
और कहा ,
"पीछे देखो......."
देखा अफरातफरी मची है.सब लुटने मे व्यस्त हैं...
किसी को किसी से मतलब नही है,
...........
मैं एक ज़िंदगी पर आंसू बहा रही थी,
यहाँ तो जिंद गानियाँ रुला रही थीं!
कातर दृष्टि से हरि को देखा,
हरि मुस्काये,
सर सहलाया,
निस्सारता का पाठ पढाकर
हारे को हरिनाम दिया...........

17 जनवरी, 2008

अमृत



मकसदों की आग तेज हो
मनोबल की हवाएँ हो
तो वो आग बुझती नहीं है
मंजिल पा कर ही दम लेती है...
आँधियाँ तो नन्हें दीपक से हार जाती हैं
सच है ,
क्षमताओं को बढाने के लिए
आँधी तूफ़ान का होना ज़रूरी होता है...
प्रतिभाएं तभी स्वरूप लेती हैं
जब वक़्त की ललकार होती है....
जो ज़मीन बंज़र दिखाई देती हैं
उससे उदासीन मत हो....
ज़रा नमी तो दो
फिर देखो वह क्या देती है
हाथ , दिल, मस्तिष्क , दृष्टि लिए
प्रभु तुम्हारे संग हैं
सपनो की बारीकियां देखो
फिर हकीकत बनाओ....
तुम्हारे ऊपर है
हाथ को खाली देखते हो
या सामर्थ्यापूर्ण!
मन अशांत हो
तो घबराओ मत
याद रखो ,
समुद्र मंथन के बाद ही
अमृत निकलता है....

16 जनवरी, 2008

मान



कुन्ती पुत्र कर्ण
"सूत पुत्र" की धार पर
क्षत्रिय होने का क़र्ज़ चुकाता रहा।
कर्तव्य ! परिवार ! राज्य के नाम पर
अपने "स्व" की परीक्षा देता गया
कुन्ती की एक खामोशी ने
उसके जीवन का सम्पूर्ण अध्याय बदल डाला
हर कदम पर
एक परिचय के नाम पर
अपमान का गरल पीता गया
सगे भाइयों के होते
भ्राता हीन रहा...
हर रिश्ते की नाज़ुक डोर से वंचित ही रहा
कुन्ती ने हर बार व्यथा का ढोंग किया
मात्री धर्म के नाम पर
पांच पुत्र का दान लिया
परोक्ष मे माता ने
कर्ण को मृत्यु दान दिया !
इतने बडे ढोंग व्यूह के आगे
दुर्योधन ने ही आगे बढ़ कर साथ दिया
कुन्ती दे न सकी अपना नाम कभी
दुर्योधन ने राज्याभिषेक के साथ
कर्ण को क्षत्रिय कुल का मान दिया

मायने बदल जाते हैं...



जब मासूम ज़िन्दगी अपने हाथों में,
अपनी शक्ल में मुस्कुराती है
तो जीवन के मायने बदल जाते हैं...
बचपन नए सिरे से दौड़ लगाता है!
कहाँ थे कंकड़, पत्थर?
कहाँ थी काई ?
वर्तमान में जीवंत हो जाते हैं॥
नज़रिये का पुनर्आंकलन
मासूम ज़िन्दगी से जुड़ जाते हैं...
जो हिदायतें अभिभावकों ने दी थी
वो अपनी जुबान पर मुखरित हो जाते हैं!
हमने नहीं मान कर क्या खोया
समझने लगते हैं
नज़र, टोने-टोटके पर विश्वास न होकर भी
विश्वास पनपने लगते हैं!
"उस वृक्ष पर डायन रहती है...."
पर ठहाके लगाते हम
अपनी मासूम ज़िन्दगी का हाथ पकड़ लेते हैं
"ज़रूरत क्या है वहाँ जाने की?"
माँ की सीख, पिता का झल्लाना
समय की नाजुकता समय की पाबंदी
सब सही नज़र आने लगते हैं!
पूरी ज़िन्दगी के मायने
पूरी तरह बदल जाते हैं

11 जनवरी, 2008

अरे कोई है ???


सन्नाटा अन्दर हावी है ,
घड़ी की टिक - टिक.......
दिमाग के अन्दर चल रही है ।
आँखें देख रही हैं ,
...साँसें चल रही हैं
...खाना बनाया ,खाया
...महज एक रोबोट की तरह !
मोबाइल बजता है ...,
उठाती भी हूँ -
"हेलो ,...हाँ ,हाँ , बिलकुल ठीक हूँ ......"
हँसती भी हूँ ,प्रश्न भी करती हूँ ...
सबकुछ इक्षा के विपरीत !
...................
अपने - पराये की पहचान गडमड हो गई है ,
रिश्तों की गरिमा !
" स्व " के अहम् में विलीन हो गई है
......... मैं सन्नाटे में हूँ !
समझ नहीं पा रही ,
जाते वर्ष से गला अवरुद्ध है
या नए वर्ष पर दया आ रही है !
........आह !
एक अंतराल के बाद -किसी का आना ,
या उसकी चिट्ठी का आना
.......एक उल्लसित आवाज़ ,
और बाहर की ओर दौड़ना ......,
सब खामोश हो गए हैं !
अब किसी के आने पर कोई उठता नहीं ,
देखता है ,
आनेवाला उसकी ओर मुखातिब है या नहीं !
चिट्ठी ? कैसी चिट्ठी ?
-मोबाइल युग है !
खैर ,चिट्ठी जब आती थी
या भेजी जाती थी ,
तो सुन्दर पन्ने की तलाश होती थी ,
और शब्द मन को छूकर आँखों से छलक जाते थे
......नशा था - शब्दों को पिरोने का !
.......अब सबके हाथ में मोबाइल है
............पर लोग औपचारिक हो चले हैं !
......मेसेज करते नहीं ,
मेसेज पढ़ने में दिल नहीं लगता ,
या टाइम नहीं होता !
फ़ोन करने में पैसे !
उठाने में कुफ्ती !
जितनी सुविधाएं उतनी दूरियां
वक़्त था ........
धूल से सने हाथ,पाँव,माँ की आवाज़ .....
"हाथ धो लो , पाँव धो लो "
और , उसे अनसुना करके भागना ,
गुदगुदाता था मन को .....
अब तो !माँ के सिरहाने से ,
पत्नी की हिदायत पर ,
माँ का मोजा नीचे फ़ेंक देता है बेटा !
क्षणांश को भी नहीं सोचता
" माँ झुककर उठाने में लाचार हो चली है ......"
.......सोचने का वक़्त भी कहाँ ?
रिश्ते तो
हम दो ,हमारे दो या एक ,
या निल पर सिमट चले हैं ......
लाखों के घर के इर्द - गिर्द
-जानलेवा बम लगे हैं !
बम को फटना है हर हाल में ,
परखचे किसके होंगे
-कौन जाने !
ओह !गला सूख रहा है .............
भय से या - पानी का स्रोत सूख चला है ?
सन्नाटा है रात का ?
या सारे रिश्ते भीड़ में गुम हो चले हैं ?
कौन देगा जवाब ?
कोई है ?
अरे कोई है ???????????????

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...