30 सितंबर, 2013

माँ हो या अम्मा या मईया या … जैसे चाहो पुकार लो, वह ईश्वर रचित असीम शक्ति होती है




दिगंबर नासवा जी - जागती आँखों से सपने देखना जिनकी फितरत है - माँ के लिए उभरे एहसासों से मैंने अपने भीतर के एहसासों का सिरा जोड़ा है - माँ हो या अम्मा या मईया या  … जैसे चाहो पुकार लो, वह ईश्वर रचित असीम शक्ति होती है  . 

उस शक्ति के नाम दिगंबर नासवा जी =

माँ का हिस्सा ...

मैं खाता था रोटी, माँ बनाती थी रोटी    
वो बनाती रही, मैं खाता रहा    
न मैं रुका, न वो 
उम्र भर रोटी बनाने के बावजूद उसके हाथों में दर्द नहीं हुआ   

सुबह से शाम तक इंसान बनाने की कोशिश में  
करती रही वो अनगिनत बातें, अनवरत प्रयास      
बिना कहे, बिना सोचे, बिना किसी दर्द के   

कांच का पत्थर तराशते हाथों से खून आने लगता है   
पर माँ ने कभी रूबरू नहीं होने दिया 
अपने ज़ख्मों से, छिले हुए हाथों से   
हालांकि आसान नहीं था ये सब पर माँ ने बाखूबी इसे अंजाम दिया 

अब जब वो नहीं है मेरे साथ 
पता नहीं खुद को इन्सान कहने के काबिल हूं या नहीं 

हां ... इतना जानता हूं 
वो तमाम बातें जो बिन बोले ही माँ ने बताई 
शुमार हो गई हैं मेरी आदतों में 

सच कहूं तो एक पल मुझे अपने पे भरोसा नहीं 
पर विश्वास है माँ की कोशिश पे 
क्योंकि वो जानती थी मिट्टी को मूरत में ढालने का फन 

और फिर ... 
मैं भी तो उसकी ही मिट्टी से बना हूं 


और मेरे एहसास यानि रश्मि प्रभा के =


ये सच है न अम्मा ?

कितने अजीब होते हैं रास्ते … 
तुम्हारी बातों की ऊँगली थामे 
पहले मैं तुम्हारे नईहर के घर घुमती थी 
फिर हर जगह से होकर
हम जगदेवपथ के छोटे से घर में जीने लगे
तुम्हारा घर मेरे साथ
बन गया था सबका मायका 
फिर हुआ पुणे का सफ़र …
……………
अब एक खाली कमरा
और ICU का 2 नम्बर बेड
मेरी जेहन में बस गए हैं …
रांची से चलते समय
मन का एक कोना खाली कमरे की खिड़की पर
छोटे बालकनी में
तुम्हें देख लेने की लालसा में
निहारता बढ़ गया यह कहते हुए
'चल अम्मा साथे'
……।
यह भी अजीब ही बात है
कि तुम्हारी असह्य तकलीफ के आगे
तुम्हारी मुक्ति के लिए
मैंने प्रभु का आह्वान किया
- - - किसी जादू की तरह
तुम शारीरिक पिजड़े से मुक्त हो गई
पर पिंजड़े की सलाखों पर जो निशाँ थे
वे मुझे तकलीफ देते हैं ……

मैं आँखें बंदकर तुम्हारा आह्वान करती हूँ
हाँ अपनी सुन्दर सी अम्मा का
हाँ हाँ वही सीधी माँगवाली लड़की
जो कभी तरु थी
कभी सरू
कभी कुनू
और कहती हूँ -
तुम्हारे अपने कई कमरे हैं
जहाँ से तुम कभी नहीं जा सकोगी
………
ये सच है न अम्मा ?

03 सितंबर, 2013

अम्मा



अब अम्मा का फोन नियम से नहीं आता 
'साईं समर्थ' 
गुड नाईट। … नहीं सुनती उनसे 
मैं कर देती हूँ आदतन मेसेज 
कोई जवाब नहीं आता 
कभी फोन करूँ भी 
तो अम्मा उठाती नहीं 
उठाया भी तो बगल में रख देती है 
झल्लाती है हौले से - "कुछ सुनाई ही नहीं देता"
…… 
कभी वो करती है तो लपककर उठाती हूँ -
'हाँ अम्मा बोल  …'
कराहती है अम्मा 
कभी कहती है - 'बहुत तकलीफ,बहुत तकलीफ  ….'
कभी - 'बुला लो,बुला लो  ….'
कभी - 'अह अह अह अह  ….'
कभी - '…………………….'
इधर दो तीन दिनों से 
हर दिन (करीबन 3 बजे)
आधी रात को मोबाइल बजने लगा है 
देखती हूँ,सुनती हूँ - ट्रिन ट्रिन ट्रिन ट्रिन 
नहीं उठाती  - 
घबराहट होती है…… 
वो घुटी घुटी कराहट मैं बर्दाश्त नहीं कर पाती 
………………। 
उम्र के इस पड़ाव पर 
अम्मा बहुत कमज़ोर,बीमार है 
और हम  - अपनी अपनी जिम्मेवारियों में अवश-शिथिल !
मेरी बाह्य दिनचर्या से 
मेरी आंतरिक दिनचर्या मेल नहीं खाती 
मैं ही क्या 
हमसब अपनी अपनी जगह बाह्य से परे जी रहे हैं 
……… 
ऊपर से संवेदनहीन दिखते  
अन्दर किसी पिजड़े में पंख फड़फड़ाते 
मुक्ति की कामना लिए 
अव्यक्त भय से ग्रसित !

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...