22 मई, 2018

एक हस्ताक्षर की तरह !!




एक कमज़ोर लड़की
जो किसी के दर्द को
डूबकर समझती है
डूबकर भी बाहर भागती हो
बनाती हो खुद को मजबूत
तब तुम रो क्यूँ नहीं लेते इस बात पर
कि हालातों ने उसे कितना मजबूर किया !

अपने आँसुओं की खलबली से वह टकरा जाती है
रोकती है खुद को बहने से...
टहनी सी वह लड़की, जो बरगद हो जाना चाहती थी
हुई भी थी, फिर कट गई थी  ....
उस बरगद को कटते देखकर
तुम्हें रोना नहीं आया ?

ज़मीन पर पड़ी उसकी डालियों से उम्मीद रखते हो
कि जब हवा चले
तो पत्तियों में हलचल हो
और तुम्हें राहत मिले !

मुझे उस पर
गुस्सा भी आता है,
और प्यार भी
कि वक़्त ने उसे बहुत बदलना चाहा,
लेकिन वह,
बदलकर भी वही है
एक हस्ताक्षर की तरह !!
       

19 मई, 2018

नख से शिख तक ज़िंदा रहूँगी




मैंने कब कहा ?
कि,
खुद के हिस्से
थोड़ी स्वतंत्रता माँगते हुए
मैं अपने सपनों को ऊँचे छींके पर रख दूँगी ?
भूल जाऊँगी गुनगुनाना,
चूड़ी पहनना,
पायल को ललचाई आँखों से देखना।
चुनरी मुझे आज भी खींचती है अपनी ओर,
पुरवईया - जब मेरे बालों से ठिठोली करती है
तो सोलहवें साल के ख्याल
पूरे शरीर में दौड़ जाते हैं !
स्वतंत्रता माँगी है,
राँझा बन जाने की बात नहीं की है।
मैं हीर थी,
हूँ
और रहूँगी !
मुझे भी जीने का हक़ है,
कुछ कहने का हक़ है
....
सूरज को अपने भाल पर
बिंदी की तरह सजाकर
मैं श्रृंगार रस की चर्चा आज भी करुँगी
स्वतंत्रता माँगी है,
पतझड़ नहीं।
बसंत के गीत,
जो तुम मेरे होठों से छीन लेना चाहते हो,
वह मैं होने नहीं दूँगी !
6 मीटर की साड़ी पहनकर,
मैं वीर रस की गाथा लिख चुकी हूँ,
तो आज भी यही होगा,
भोर और गोधूलि की लालिमा लिए
मैं धरती का चप्पा चप्पा नापूँगी,
सारे व्रत-त्यौहार जियूँगी,
अपने भाई के हाथों अपनी रक्षा का अधिकार बांधूंगी,
पूरी माँग भरकर,
अनुगामिनी बनूँगी  ...
साथ ही,
भाई की रक्षा का वचन भी लूँगी,
पति राह से भटका
तो, निःसंकोच -
उसके सारे रास्ते बंद कर दूँगी
स्त्री हूँ
स्त्रीत्व को सम्मान से जीऊंगी,
माँ के अस्तित्व को,
उसके आँचल से गिरने नहीं दूँगी,
मैं नख से शिख तक खुद को संवारूँगी
रोम रोम से ज़िंदा रहूँगी ,
स्वतंत्रता के सही मायने बताऊँगी  ...

06 मई, 2018

"जाने कहाँ गए वो दिन" !




छोटे थे तो
अपने गाँव
अपने शहर से बाहर
सब अद्भुत था
और अपनी पहुँच से कोसों कोसों दूर !
मुजफ्फरपुर,पटना,राँची जाना ही शान थी
पटना के हॉल में सिनेमा देखना
कुछ अलग सी बात थी .
तब चर्चा होती थी गोलघर की,
पहलेजा से महेंद्रू घाट जाने की
स्टीमर पर जो हवा बालों से अठखेलियाँ करती थी
वह परियों के देश जैसी ही थी !
राँची का फिरायालाल
रईसी की बात थी,
वहाँ सॉफ्टी खाना
आधुनिकता की बात थी !
वहाँ के रिफ़्यूजी मार्केट के मेले में
क्या नहीं मिलता था !
मिलता तो आज भी है,
लेकिन  ... पहले जैसी बात नहीं रही।
अस्सी के दशक में
शहीद चौक पर वह चाट का ठेला
हर कोई रुक ही जाता था।

रिक्शा से ऑटो,
ऑटो से कार,
सेकेंड स्लीपर से एसी 3
फिर एसी 2
... अपने शहर से जब निकले
तो निकल ही गए,
अपना शहर,
यूँ कहें, अपना घर अजनबी हो गया
कभी गए वहाँ
तो विस्फारित आँखों से यूँ देखा,
जैसे म्यूजियम घूमने आए हों !
जिन शहरों की कोई कल्पना नहीं थी
वहाँ रहने लगे !
विमान से जब पहली बार उड़े
तब लगा,
हम भी अमीर हो गए !

मुम्बई ! हमारे लिए एक फिल्मी दुनिया थी
लेकिन विद्युत गति से भागती मुम्बई
हमारा ठिकाना बन गई
दौड़ने लगे हम यहाँ की सड़कों पर
समंदर हमारा दोस्त बन गया
खुद से हम अपरिचित हो गए  !

इन बड़े शहरों में
गोल्ड क्लास में बैठकर
अब हम सिनेमा नहीं देखते
फ़िल्म देखते हैं !
छोटे छोटे किरानों से अब हम
किराने का सामान नहीं लेते,
बड़े बड़े मॉल से अनोखे पैकेट उठाते हैं
ऑर्गेनिक फ्रूट्स,वेजिटेबल्स लेते हैं
हज़ार की जगह
हज़ारों का सामान खरीदते हैं
घर में लाकर भूल जाते हैं
कुछ चीजें खाते हुए बुरा सा मुँह बनाते हैं
अरे ! यह क्या है !
....
लेकिन,
हम गाँव की  बातें करते हैं !
छूट गए शहरों को याद भी करते हैं !
बुद्धिजीवी हो गए हैं हम महानगरों में
हर विषय पर बोलते हैं,
चुप होते ही नहीं,
इतने ज्ञानी हो गए हैं
थोड़ी थोड़ी राजनीति सबने सीख ली है !

इंटरनेट का ज़माना है
और हम रोबोट
कुछ करें या न करें
बोलते जाते हैं।
हमारे सपनों की माँग भी बदल गई है
पहले हम राजा,रानी,
तोता,मैना को सुनते थे
अलादीन का चिराग चाहते थे,
अब आईपैड है,
और हर बटन में एक कहानी !
इक्के दुक्के घर में रखे टेलीफोन के नंबर घुमाने के लिए
इज़ाज़त लेनी पड़ती थी,
जिसका मिलना लॉटरी निकलने जैसा था !
अब तो बच्चों से इज़ाज़त लेनी पड़ती है
... स्वाभाविक है,
हमने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है,
बच्चों ने बड़ों का सम्मान !!

प्रश्न झकझोरता है,
क्या हम पीछे छोड़ आए,
छूट गए वक़्त को,
रिश्तों को,
गीतों को,
बचपन को
आगे ला पाएँगे ?
बच्चों के साथ कागज़ की नाव बनाने का
समय निकाल पाएँगे ?
बच्चों में पंचतंत्र की कहानियों की
उत्सुकता जगा पाएँगे  !!!!!!

मरीन ड्राइव पर बैठे लोग
अब रोमांचित कम,
थके हुए अधिक मिलते हैं
जिनके चेहरे पर एक ही गीत होता है,
"जाने कहाँ गए वो दिन" !



दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...