25 दिसंबर, 2023

इमरोज़

 इमरोज़ प्यार का वह सांचा थे, जिसके लिए न जाने कितने अध्याय लिखे गए । पर क्या कोई अपने बच्चे का इमरोज़ होना बर्दाश्त कर पाएगा ?! 

मेरी नज़र में इमरोज़ जंगल में खिले फूल की तरह थे, जो गर्मी में झुलसा, पर देखनेवालों ने उनको ऋतुराज वसंत की तरह लिया । मेरे मन में कुछ गीत तैरते हैं - 


कोई भी तेरी, राह न देखे

नैन बिछाये ना कोई 

दर्द से तेरे, कोई न तड़पा 

आँख किसी की ना रोयी 

कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ ...


तूने तो कहा नहीं दिल का फ़साना

फिर भी है कुछ बुझा बुझा 

सारा ज़माना

जिसका कल गुमां न था 

आज उसी का यकीन है

 तेरा है जहाँ सारा

अपना मगर कोई नहीं है ...


पहले भी यह बेचैनी हुई, अब भी हो रही है । क्या कहूं इमरोज़ ?


मेरी दीदी नीलम प्रभा ने मुझसे कहा, मुम्बई स्थित कांदिवली में ही संस्कार है, चली जाओ... तबीयत का उतार चढ़ाव तो अपनी जगह है ही, लेकिन मैं उस जगह मन ही मन बेचैन होकर भी तुम्हारे साथ आंतरिक बहस में उलझ जाती और तुम हमेशा की तरह इतना ही कहते - रश्मि, तुम कैसे यह सब सोच लेती हो, पर सच कहूं, अच्छा लगता है । 


रुको इमरोज़, मैं तुम्हारी पीठ से साहिर का नाम खुरच देती हूँ और तुम्हारे मन को लिख देती हूँ - अमृता इमरोज़ । 


रश्मि प्रभा

23 दिसंबर, 2023

है ना इमरोज़ ?

 मैं कोई स्थापित नाम नहीं थी, पर इश्क़ का एक अद्भुत दरिया मेरे अन्दर बहता रहा... उसी दरिया में तिनके की तरह बहते हुए मैं इमरोज़ से मिली थी ।

यूं तो इमरोज़ ने हर चाहनेवालों को एक विशेष दर्जा दिया।‌ बहुत सहज, स्वाभाविक व्यक्तित्व जो था। पर मेरे साथ कुछ तो था, जो सबसे अलग हटकर था - !
मैं जब पहली बार हौज खास पहुंची, तब घंटी बजाने से पहले हाथ थरथराए थे, धड़कनें तेज हुई थीं, पता नहीं कैसे मिलेंगे! लेकिन दरवाजा खोलकर जो शख्स मेरे आगे खड़ा था, वह एक सूफ़ी गीत लगा, जिसे आंखें गुनगुनाने लगीं। उसने कहा, आओ रश्मि, आ जाओ ... मैं सम्मोहन का धागा थामे बढ़ती गई । 
घर तो वह था ही नहीं, वहां प्रेम मंदिर था, प्रेम की समाधि थी, ... छोटी छोटी घंटियों के गुच्छे की तरह अमृता की कविताएं थीं, अमृता की पूरी धरती,पूरा आकाश था । इमरोज़ की बातचीत में सिर्फ अमृता की रुह थी, जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा में इमरोज़ ने खुद को भुला दिया था । मैं सुनती रही, देखती रही... फिर मैंने धीरे से मंदिर के रिक्त कोने में इमरोज़ का वजूद रख दिया । मुस्कुराए थे वह और बरसों से अपने तपते मन पर मेरी बातों की बारिश में वे भीगते गए । सबको जरुरत होती है, उन्हें भी थी - कहते हैं न कि जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाए और मैंने उस मन को झकझोरा ।
प्रगति मैदान में चलते हुए अचानक मुड़कर इमरोज़ ने कहा था - "तुम तो बिल्कुल अमृता हो", मैं मन ही मन मुसकाई - ना, मैं अमृता हो ही नहीं सकती, होना भी नहीं चाहती, मैं बस इमरोज़ हूँ,बस इमरोज़ । 
दिल्ली में मेरी पहली किताब 'शब्दों का रिश्ता' के लोकार्पण में इमरोज़ ने अपना सारा समय मेरे नाम कर दिया था । मेरे लौटने से पहले उन्होंने मुझे घर के हर कमरे से मिलवाया, मुंडेर पर कबूतरों से, उनके दानों से, फूलों से... मिलवाया । पास ही किताबों की एक छोटी सी दुकान थी, वहां से कुछ किताबें लेकर मुझे दीं, अपने बनाए रेखाचित्रों का कैलेंडर दिया, फिर पूछा - और कुछ चाहिए? मैं अवाक बस उनको महसूस कर रही थी ... 
जब चलने लगी तो गाड़ी के दरवाजे पर उन्होंने कहा, थोड़ा आगे बढ़ना, मेरी समझ में नहीं आया कि बात क्या है, पर मैं खिसक गई तो वो बैठ गए ।अब यह हमारे लिए आश्चर्य की बात थी । हमें लगा, कहीं उतरना होगा । पूछा, जी कहां चलें, बड़ी सरलता से बोले, जहां तुम ले चलो । मैं अपनी दीदी से मिलने जा रही थी, झट से उनलोगों को मैसेज किया और इमरोज़ हमारे साथ वहां गए । फिर हमें एयरपोर्ट जाना था तो उनको हौज खास छोड़ने गई, अपने अकेलेपन को भरते हुए इमरोज़ मेले में खो गए बच्चे की तरह लग रहे थे ! सच भी था यह, पर प्यार अपनी ज़िद में सबकुछ स्वीकार कर लेता है ।
मैंने उनसे जो जो कहा, उन्होंने हमेशा कहा "ठीक है" । 
मोबाइल पर हर सुबह बात होती थी, एक दिन मैंने मैसेज किया तो उनका फोन आया, यह तो मुझे आता नहीं है, लेकिन मैं सीख लूंगा और उन्होंने सीख लिया । उनकी चिट्ठियां आतीं, मैंने लिखा _ कभी इन चिट्ठियों के बदले आप आ जाते तो ... और वे आ गए, तब मैं पुणे में थी । दो दिन वे रहे, मेरे हाथ का खाना खाकर वे बहुत खुश थे ।
     अभिनव इमरोज़ पत्रिका के बारे में पूछा तो उन्होंने मेरे लिए सब्सक्राइब कर दिया, हर महीने वह पत्रिका मुझे मिलती रही। 
कोरोना के वक्त से सिलसिला रुकने लगा, आखिरी बातचीत २०२१ में संभवतः हुई । लेकिन इससे अलग यह सच था कि बचपन से मैंने प्यार को पूजा माना और इमरोज़ का नाम अगर की खुशबू की तरह मैंने बचपन से सुना । इमरोज़ का मेरे घर आना कोई इत्तेफाक नहीं था, बल्कि प्यार का वरदान था । इस रिश्ते में थी हौज खास k25 की छत पर जाती सीढियां, साथ चाय पीने का सुकून,घर के हर सदस्य के लिए की गई बातचीत - जो मेरे रहने तक मेरे साथ रहेंगी । 

है ना इमरोज़ ?

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...