22 मई, 2008

अधिकार........


ओ रूपसी,
आज तुमने अपनी पर्ण-कुटी के द्वार नहीं खोले,
बस भीतर ही खिलखिलाती रही,
चिडियों का समूह दानों की प्रतीक्षा में है,
जरा खोलो तो द्वार,
मैं भी देखूं तुम्हारा आरक्त चेहरा,
बिखरे सघन बाल,
फ़ैल गए टीकेवाला चेहरा,
जानूँ तो सही-
किसे ये अधिकार तुमने दे दिया है...........

20 मई, 2008

जीत.......




पौधे जब लगाये थे
तो धूप पानी कुछ नहीं था,
बस था तूफ़ान का अनवरत सिलसिला !
बड़ी मुश्किलों से देवदार,गुलाब
और रजनीगंधा लगाए,
आंखों के जल से सींचा था,
ममता की बाड़ लगाई थी
और रक्षा मंत्र का पहरा था!
सबने कहा था-
"आसान नहीं पौधों को बचाना,"
जो जीवन का उद्देश्य बना !
जाने कितने कांटे चुभे पाँव में,
और पौधे भी अकुलाए,
टांग दी तब ये झूठी तख्ती-
"कुत्तों से सावधान"....
डर से फिर आतंक रुक गया,
एक-एक झूठ की आड़ में मैंने
सौ सत्य का वरदान लिया.......
आज खड़ा है देवदार,
देखो वह उन्नत भाल लिए,
और मन है ओत-प्रोत
फूलों की सुगंध लिए-
आज फिर सत्य की जीत हुई,
आया बसंत आँगन में,
चहुँ ओर है सूर्य की लाली,
हँसता चाँद गगन में...
जीवन में खुशियाँ चहक उठीं हैं,
कोई तिनका तोड़ लूँ या बढ़कर
काजल का गहरा टीका लगाऊँ
मेरे आँचल में खुशिया सिमट चली है..........


19 मई, 2008

आहट.........




कोई आहट रुकी है जानी-पहचानी
मेरे मन की सांकलें सिहर उठी हैं..
मैं तो ध्यानावस्थित थी,
ये कौन आया बरसों बाद?
मुझे याद दिलाया-मैं जिंदा हूँ.......!
किसने मेरे खाली कमरे में घुँघरू बिछा डाले,
जो पुरवा की तरह बज उठे हैं!
क्यों मुझे राधा याद आ रही?
उधो की तरह मैं गोपिकाओं में क्यों लीन हो उठी?
ये बांसुरी की तान कहाँ से आई है?
यमुना के तीरे ये क्या माज़रा है
क्यों ब्रज में होली की धूम मची है?
क्या कृष्ण ने फिर अवतार लिया है???


15 मई, 2008

कुछ है.......


काले मेघों का आना,
टप-टप बूंदों का बरसना,
सोंधे ख्याल अंगडाई लेने लगे हैं......
जाने क्यूँ?
भींग जाने का दिल करता है.......
दौड़ता है मन पर्वतों की चोटियों पे,
दिल की धड़कनें पाजेब-सी बजती है......
मेरे अन्दर मोरनी थिरक उठी है,
होठों पे कोई गीत फुहारों -से मचलते हैं......
मेरी यादों की गगरी छलक उठी है,
सोंधी खुशबू हवाओं में दहक रही है.......
मेरे मन में घटाएँ बहक रही हैं,
"कुछ है"-सारी धरती फिसल रही है.........

02 मई, 2008

कल्पना.....

मैं सोच रही हूँ.......
कुछ लिखना चाहती हूँ........
मेरे शब्द गुम हो गए हैं,
मेरे एहसासों का अपहरण हो गया है,
फिरौती में मेरी कल्पनाएं माँगी जा रही हैं,
मेरे पास यही तो बहुमूल्य संपत्ति है,
हीरों -सी चमक-दमक,
जौहरी ने पहचान लिया,
और एहसासों को बंद कर डाला....
कहता है,कल्पनाएँ दे दो,
वरना एहसासों को मिटा दूँगा!
मैं सोचती रही,
सोचती रही.......
"मूर्ख जौहरी,मेरी कल्पनाएँ जब साथ हैं,
तू एहसासों को भला कैसे मिटा सकेगा,
कल्पनाओं की वसीयत जिन्हें दी है,
उनके साथ मेरे एहसास चलते रहेंगे......."
मैंने फिर शब्द ढूंढ लिए हैं,
और विश्वास भरा एहसास लिए,
सोच रही हूँ,
कल्पनाओं की दिशा में तैर रही हूँ........

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...