07 दिसंबर, 2022

स्वयं को आरंभ बना लो...

 






ओ प्रिय,

जीवन का हर निर्णय
एक युद्ध होता है
- वह जन्म हो,
मरण हो,
विवाह हो,
निभाना हो,
अलगाव हो
... और फिर सहजता की विभीषिका हो !!

युद्ध अठारह दिनों का हो
या बीस, पचास, सौ वर्षों का 
... परिणाम मृत्यु तक ही सीमित नहीं होते,
सारांश, निष्कर्ष शरीर, मन की शाखाओं पर भी
प्रभाव डालते हैं ।
कर्मकांड कोई भी हो,
मुक्ति नहीं मिलती !!!

तो हल क्या है ? 
खुद को मांजना,
तराशना,
शोर के आगे अपने मौन को सुनना
- वह दबी हुई सिसकियां ही क्यों न हो !

माना,
कोई कंधे पर, सर पर हाथ रखे,
गले से लगा ले
तो सुकून मिलता है
लेकिन क्षणिक ही न !
युद्ध में अभिमन्यु बनना पड़ता है
अपने हों, पराये हों
- सबके वार से अकेले जूझना होता है
निहत्था होकर भी
अपनी क्षमता पर विश्वास रखना होता है
कर्ण भी हिल जाए,
ऐसा रुप दिखाना पड़ता है ...

निःसंदेह,
धरती तब भी खून से लाल होती है
लेकिन अभिमन्यु युगों की प्रेरणा बनता है 
न मुक्त होता है,
न होने देता है !

तो अपनी जीजिविषा का हुंकार करो
शंखनाद करो
खुद को ब्रह्मास्त्र बना लो 
मृत्यु भी नतमस्तक होकर तुम्हें वरण करे,

स्वयं को ऐसा आरंभ बना लो...


22 नवंबर, 2022

मेरे तुम


 


मेरे तुम,
जाने अनजाने प्रेम परिधान में
मैंने तुमसे कहा _ 
मैं सीता की तरह 
तुम्हारी अनुगामिनी बनकर रहूंगी...
और तुम राम बन गए !!!
एक अग्नि परीक्षा की कौन कहे,
_ निरंतर अंगारों पर चली ।
कलयुग रहा,
तो वाल्मीकि का मिलना भी संभव नहीं हुआ !

मेरे तुम,
तुम्हारे शब्दों के माधुर्य में सुधबुध होकर
मैं बरसाने की राधा सी क्या हुई
तुम कृष्ण बन गए !!
अब कथा क्या कहूं ... 
मैं तो प्रतिक्षित ही रही !!! 
जनकपुर, अयोध्या, चित्रकूट,लंका,...
बरसाने, गोकुल, वृंदावन में भटकती रही !!!

इस भटकाव में तुम एक नाम रहे,
अनाम, बेनाम !
कभी उस 'तुम' से न मेरा मिलना हुआ,
न वह मिला...
मेरे तुम,
मैं जिम्मेदारी बनकर 
तुम्हारे हिस्से आई ही नहीं, है 
तो मुड़कर देखना भी क्या था ! 
हां मुझसे मिला जटायु,
मेरा हाल पूछा अशोक वाटिका ने
कदम्ब मेरे आंसुओं से सिंचित होता रहा,
वृंदावन एक छायाचित्र की तरह
मेरे साथ चलता रहा
ऊधो मिले,
सुदामा मिले ... 

तुम जो आज तक जीवित हो,
वह इसलिए _
क्योंकि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली
तुम्हारे लक्ष्य के आगे नहीं आई 

... चुंकि मैंने प्रेम को मरने नहीं दिया,
इसलिए तुम कहीं भी रहें,
तुम्हारे नाम से पहले मेरा नाम
मेरा वजूद रहा,
और मेरे वजूद ने तुम्हें अमर किया 
सीताराम
राधेकृष्ण ... 


28 अक्तूबर, 2022

गीता को खुद में आत्मसात करना है !!!


 


यदि तुम कुछ ठीक करना चाहते हो
तो सही-गलत के अन्तर को समझना होगा ! 
अहम की शिला को
ताक पर रखना होगा
खुलकर सच कहना 
और सुनना होगा ...
हर बात पर यदि अहम आड़े आए
तब कोई भी कोशिश बेकार है !!!
ना,ना
आप बेसिर पैर की वजहें नहीं खड़ी कर सकते 
जब तक चेहरे और व्यवहार में
शालीनता, मृदुता नहीं है
आपकी कोशिश सिर्फ और सिर्फ एक झूठ है . ‌. .

इससे परे _ 
यदि तुम अपनी जगह सही हो
पर बातों, चीजों को 
तुम ही सही करना चाहते हो 
_ तब तुम्हें कृष्ण से सीखना होगा
 पांच ग्राम जैसा प्रस्ताव ही सही होगा
अर्थात बीच का वह मार्ग,
जिसमें सम्मानित समझौता हो,
. ‌..
पर इसमें भी बाधा हो,
बड़ों की ग़लत ख़ामोशी उपस्थित हो
तब न्याय के लिए विराट रूप लेना होगा
सारथी बन जीवन रथ को घुमाना
और दौड़ाना होगा
... आवेश _ बिल्कुल नहीं
बल्कि सहजता से झूठ के बदले झूठ
साम दाम दण्ड भेद की तरह 
मन की प्रत्यंचा पर
बातों के शर को चढ़ाना होगा ...

प्रिय,
यहां किसी महाभारत की जरुरत नहीं
बल्कि उस समय को अनुभव की तरह लेना है
गीता को खुद में आत्मसात करना है !!!



05 सितंबर, 2022

अकेलापन !!!




कुछ भी कह लो
सफाई देने में
भले ही साम दाम दंड भेद अपना लो
पर्व, त्योहार,
एवं किसी के आने पर
खाने की जिस खुशबू से
घर मह मह करता था,
खुशियों की खिलखिलाती पायल बजती थी,
वह अब गुम है
_ बिल्कुल उस गौरेये की तरह
जो आंगन में उतरकर राग सुनाती थी !
घर-परिवार यानी सारे रिश्ते
साथ होते थे ...
तो हर लड़ाई, बहस के बावजूद
रिश्ता,
रिश्तों की जिम्मेदारी बनी रहती थी !
अब तो सबके अपने फ्लैट हैं,
अपनी लीक से हटकर पसंद है
एक दूसरे के लिए समय की कमी है
उपेक्षा है, अवहेलना है
चेहरे पर निगाह डालने से परहेज है !!
और इसमें कमाल की बात यह है
कि सबको अकेलेपन की शिकायत है
और इसलिए सबसे शिकायत है ।
अपनी अदालत है,
अपनी सुनवाई है
तो फैसला अपने हक में ही रहता है
साइड इफेक्ट में
कोई न कोई बीमारी है
खीझ है
सारे मसालों के बावजूद
कहीं कोई स्वाद नहीं है,
अगर कभी स्वाद मिल जाए
तो दंभ की अग्नि जलाने लगती है
...
सारांश _ !!!
निरर्थक घर,
तथाकथित सुख सुविधाओं के सामान
और ...... अकेलापन !!!

20 अगस्त, 2022

मैं अपना ही अर्थ ढूंढता हूँ ।


 


गोकुल की वह सुबह,

सोहर के बीच 
माँ यशोदा ने जब मुझे कसकर गले लगाया 
उनके बहते आँसुओं को 
अपनी नन्हीं हथेली पर महसूस करते हुए 
मेरा आँखें माँ देवकी को
वासुदेव बाबा को ढूंढ रही थीं ...

समय की मांग से परे
मैं उसी वक्त चाह रहा था विराट रूप लेना
अपने सात भाईयों की हत्या 
माँ देवकी के गर्भनाल की असह्य 
निःशब्द पीड़ा को अर्थ देना
कंस को उसी कारागृह की दीवार पर
उसी की तरह पटकना... !!!
लेकिन माँ यशोदा के हिस्से लिखी बाल लीला
सूरदास के अंधेरे में उजास भरने के लिए 
मुझे चौदह वर्षों का गोकुलवास मिला था !!

ईश्वरीय चमत्कार की चर्चा छोड़ दें
तो न मेरे आगे माँ देवकी की व्यथा थी
न उनकी गोद में मैं !!
मेरे आगे भी एक निर्धारित अवधि थी
जिसमें मुझे गोकुल का सुख बनना था,
प्रेम बनना था 
और फिर सबकुछ छोड़कर
मथुरा लौटना था
उलाहनों,आँसुओं की थाती लिए !

बिना भोगे,
बिना जिए,
कौन मेरे करवटों की व्याख्या करेगा ?
कैसे कोई जानेगा
कि जब मैं माँ देवकी के गले लगा
तो मेरा रोम रोम माँ यशोदा के स्पर्श से भरा था !
माँ देवकी भी सिहर उठी थीं ...
दो बूंद आंसू गिरे थे
लेकिन होनी के इस अन्याय को स्वीकार करते हुए 
उन्होंने मेरे सर पर हाथ रख दिया था
ताकि मैं मथुरा के साथ न्याय कर सकूँ ... !!!

मैंने क्या न्याय या अन्याय किया
_ नहीं जानता !
मेरे मुख में ब्रह्मांड था या नहीं
- मुझे ज्ञात नहीं 
पर जो अन्याय मेरे जीवन में होनी ने तय किया,
उसके आगे मेरा वजूद गीता बना ...
अगर ऐसा नहीं होता,
तो मैं जी नहीं पाता !

तुमसब भले ही मुझे द्वारकाधीश कहो
पर अपने एकांत में 
मैं अपना ही अर्थ ढूंढता हूँ । 


रश्मि प्रभा 


15 अगस्त, 2022

आज़ादी के पचहत्तर साल ...


 





आज़ादी के पचहत्तर साल !!!
लिया था हमने जन्म आज़ाद भारत में,
लेकिन शहीदों की कहानी
बड़ों की ज़ुबानी
हमारी आँखों से बहे,
इंकलाब रगों में प्रवाहित होता रहा ...
नाम किनका लूँ
किनका छोड़ दूँ
या भूल जाऊँ ?
मन की धरती पर
उनकी मिट्टी भी है
_ जो अनाम रहकर भी
अपने देश के लिए 
हमेशा के लिए सो गए !
भगतसिंह के बारे में
सुनते, सुनाते हुए 
जेल के बाहर
उनकी माँ मेरे वजूद में होती हैं ...
जो धीरे से कहती हैं,
'मेरा भगत' !!!
तिरंगे के हर रंग से
सुखदेव,आज़ाद, बटुकेश्वर दत्त, 
दुर्गा भाभी, 
सहगल,ढिल्लन, शाहनवाज दिखाई देते हैं 
वन्देमातरम की गूंज के आगे
किन्हें भूलूं,  किन्हें याद करूँ जैसी स्थिति होती है !

पचहत्तर साल बीत गए 
विश्वास नहीं होता
मन कहता है,
"ऐ भगतसिंहा,
एक बार हाथ मिला ले यार,
तेरी बात समझ नहीं पाया
पर इतना तो तय है 
कि कुछ तो बात है !"

खैर,
आज़ादी के पचहत्तर सालों के पड़ाव पर,
मैं सभी शहीदों 
और स्वतंत्रता सेनानियों का आह्वान करती हूँ
और लहराते तिरंगे के आगे सर झुकाती हूँ
यह कहते हुए कि इसकी अक्षुण्णता बनी रहे,
हर रंग में अपना भारत सर्वस्व रहे  ...

25 जून, 2022

मैं भीष्म


 


मैं भीष्म
वाणों की शय्या पर
अपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथ
कुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँ
या ....... !
अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र की
विवेचना कर रहा हूँ ?!?
एक तरफ पिता शांतनु के दैहिक प्रेम की आकुलता
और दूसरी तरफ मैं
.... क्या सत्यवती के पिता के आगे मेरी प्रतिज्ञा
मात्र मेरा कर्तव्य था ?
या - पिता की चाह के आगे
एक आवेशित विरोध !
अन्यथा,
ऐसा नहीं था
कि मेरे मन के सपने
निर्मूल हो गए थे
या मेरे भीतर का प्रेम
पाषाण हो गया था !
किंचित आवेश ही कह सकता हूँ
क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा शांत तट से नहीं ली जाती !!
वो तो मेरी माँ का पावन स्पर्श था
जो मैं निष्ठापूर्वक निभा सका ब्रह्मचर्य
.... और इच्छितमृत्यु
मेरे पिता का दिया वरदान
जो आज मेरे सत्य की विवेचना कर रहा है !
कुरुक्षेत्र की धरती पर
वाणों की शय्या मेरी प्रतिज्ञा का प्राप्य था
तिल तिलकर मरना मेरी नियति
क्योंकि सिर्फ एक क्षण में मैंने
हस्तिनापुर का सम्पूर्ण भाग्य बदल दिया
तथाकथित कुरु वंश
तथाकथित पांडव सेना
सबकुछ मेरे द्वारा निर्मित प्रारब्ध था !
जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !
कर्ण का सत्य
ब्रह्मुहूर्त सा उसका तेज …
कुछ भी तो मुझसे छुपा नहीं था
आखिर क्यूँ मैंने उसे अंक में नहीं लिया !
दुर्योधन की ढीढता
मैं अवगत था
उसे कठोरता से समझा सकता था
पर मैं हस्तिनापुर को देखते हुए भी
कहीं न कहीं धृतराष्ट्र सा हो गया था !
कुंती को मैं समझा सकता था
उसको अपनी प्रतिज्ञा सा सम्बल दे
कर्ण की जगह बना सकता था
पर !!!
वो तो भला हो दुर्योधन का
जो अपने हठ की जीत में
उसने कर्ण को अंग देश का राजा बनाया
जो बड़े नहीं कर सके
अपनी अपनी प्रतिष्ठा में रहे
उसे उसने एक क्षण में कर दिखाया !
द्रौपदी की रक्षा
मेरा कर्तव्य था
भीष्म प्रतिज्ञा के बाद
अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को मैं बलात् ला सकता था
तो क्या भरी सभा में
अपने रिश्ते की गरिमा में चीख नहीं सकता था !
पर मैं खामोश रहा
और परोक्ष रूप से अपने पिता के कृत्य को
तमाशा बनाता गया !
अर्जुन मेरा प्रिय था
कम से कम उसकी खातिर
मैं द्रौपदी की लाज बचा सकता था
पर अपनी एक प्रतिज्ञा की आड़ में
मैं मूक द्रष्टा बन गया !
मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है
कि इस कुरुक्षेत्र की नींव मैंने रखी
और अब -
इसकी समाप्ति की लीला देख रहा हूँ !
कुछ भी शेष नहीं रहना है
अपनी इच्छितमृत्यु के साथ
मैं सबके नाम मृत्यु लिख रहा हूँ
कुछ कुरुक्षेत्र की भूमि पर मर जाएँगे
तो कुछ आत्मग्लानि की अग्नि में राख हो जाएँगे
कहानी कुछ और होगी
सत्य कुछ और - अपनी अपनी परिधि में !

20 जून, 2022

आत्म साक्षात्कार


 



कोई स्थापित नाम, जिस क्षेत्र में, जिस भी वजह से, सही - गलत, सार्थक या गौण है, - उसका साक्षात्कार होता है । पूछे जाते हैं कुछ खास प्रश्न, जिनके उत्तर मायने रखते हैं ... कभी कभी नहीं भी रखते हैं । 
जिनका साक्षात्कार हुआ,वे ही सिर्फ विशेष मुकाम पर हैं और जिनका साक्षात्कार नहीं हुआ,उनके आगे कोई मुकाम नहीं है, ...ऐसा बिल्कुल नहीं होता है । रही पहचान की बात तो हिरण्यकश्यप की,महिषासुर की भी एक पहचान थी, रावण की तो बात ही अलग है ... आज वे होते तो कई पत्र-पत्रिकाओं में होते, लाइव टेलीकास्ट पर होते । ख़ैर !!!
मैंने खुद का साक्षात्कार लिया है, प्रश्नकर्ता भी मैं और उत्तर देनेवाली भी मैं ...

मैं - नमस्कार रश्मि प्रभा जी,

रश्मि प्रभा - नमस्कार ।

मैं - हाँ तो रश्मि जी, बातों का सिरा पकड़ने के लिए अच्छा होगा बातें वहीं से शुरू हो,जहां से आपने अपने नाम का अर्थ सही मायनों में जाना । नाम तो आपको,जहां तक मुझे ज्ञात है - १९६५ में प्रकृति कवि पंत ने इलाहाबाद के अपने घर में यह नाम दिया था, क्योंकि आप सिर्फ 'मिन्नी' नाम से जानी जाती थीं । आपकी अन्य बड़ी बहनों के नाम के आगे प्रभा' लगा हुआ था, और इसे जानकर कवि पंत ने कुछ देर मौन रहकर अचानक कहा था, कहिए रश्मि प्रभा,क्या हाल है ? और उस दिन आपको यह नाम नहीं पसंद आया था, है न ?

रश्मि प्रभा - बिल्कुल सही कहा आपने । उस उम्र में, न मुझे प्रकृति कवि की पहचान थी, न  इस नाम का अर्थ पता था और ना ही यह लगा कि यह बड़ी बात है । मैंने तपाक से कहा था, बहुत बुरा नाम है । उन्होंने बदलने की बात की,लेकिन मेरे माता-पिता ने यह कहकर उन्हें रोक दिया कि इसे अभी क्या पता कि इसने क्या पाया है ! ... विद्यालय में उनकी कविता - प्रथम रश्मि का आना रंगिणि पढ़ते हुए भी नहीं जाना कि मैंने क्या पाया था ! 
कॉलेज की पढ़ाई खत्म होते होते सभी बहनों,भाई की शादी हो गई । एक दिन मैं, पापा और अम्मा बैठे थे, पापा डायरी का कोई पन्ना सुना रहे थे, ... जब कवि ने मेरी छोटी बेटी का नाम रखा तो मेरे मन से आवाज़ आई कि बेटी तुम रश्मि ही बनना, और इसे सुनाते हुए पापा की आंखें छलक उठीं और तब मैंने इस नाम का महत्व जाना, देनेवाले की महिमा जानी और मन ही मन मैंने भी कहा, बनूंगी पापा,रश्मि बनूंगी ।

मैं - फिर आपने रश्मि बनने के लिए क्या किया ?

रश्मि प्रभा - मैं क्या करती ! मैं एक साधारण नहीं,अति साधारण लड़की रही, जिसकी आंखों में अलादीन के चिराग़ की ख्वाहिश थी, मुट्ठी में थे कुछ सपने, जिनको सौदागर की तरह मैं परिचित,अपरिचित सबको देना चाहती थी, लगता था ज़िन्दगी बस खुल जा सिम सिम सी है । 
ज़िन्दगी खुली, लेकिन गुफ़ा के अंदर खजाने नहीं थे - जंगल की आग थी । आगे जाऊं या पीछे कदम लूं, दांये बांयें कहीं भी मुड़ जाऊं लपटें अजगर की तरह मुंह खोले खड़ी थी । लेकिन वक़्त कम्बल की तरह मुझे माँ कहते हुए मुझसे लिपट गया और मैं आग पर निर्भीक दौड़ पड़ी, और जिस दिन मैं उस गुफ़ा से बाहर आई उस दिन मेरे पापा की आत्मा ने मेरा सर सहलाकर कहा, तू रश्मि बन गई बेटा ।

मैं - कलम से आपकी पहचान कब,कहाँ हुई ? 

रश्मि प्रभा - कलम तो विरासत रही । बारिश हो,चांदनी रात हो,घुप्प अंधेरी रात हो, या कोई शब्द या गीत, अम्मा कहती थीं, ... "इसे सुनकर जो महसूस हो रहा है _ उसे अपने शब्दों से सजाओ । लोग अल्पना बनाने का, रंग भरने का, संगीत का... अभ्यास करते हैं, मैं शब्दों को सजाने का अभ्यास करती रही । पर आज भी पहचान बनाने का अभ्यास जारी है, मुमकिन है, यह एक भ्रम हो, पर भ्रम ही सही _ सुकून मिलता है ।

मैं _ आपकी जिन्दगी में एहसासों की क्या कीमत है?

रश्मि प्रभा - इसे बखूबी बताने के लिए मैं यही कहना चाहूंगी कि एहसास यानि मेरे बच्चे, मेरे बच्चों के बच्चे... ये हैं तो मैं हूँ, आस्था है, घर है, आँगन है, सारथी बने मेरे कृष्ण हैं और ... और कुछ चाहिए क्या!

मैं _ शब्दों का रिश्ता बनाते हुए आपने क्या चाहा ?

रश्मि प्रभा- शब्दों का रिश्ता यानी दर्द का रिश्ता ... जाने-अनजाने लोगों को पढ़ते हुए, सुनते हुए मैंने उनको जिया,महसूस किया और अपने ख्यालों से उन्हें अपनी कलम में उतारा, उनके लिए कोरोना काल में विशेष रुप से दुआएं कीं, .... चाह  शुरु से अब तक यही रही कि कभी राह चलते कोई रुककर पूछे, "आप रश्मि प्रभा हैं न ?" और मुझे लगे कि मैं हूँ ।

मैं _ चलते चलते एक आखिरी सवाल, यदि कभी आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले तो आप कैसा महसूस करेंगी ?

रश्मि प्रभा - इस प्रश्न का आना ही मेरे लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार जैसा है । खैर, मैंने ऐसा कुछ लिखा है या नहीं, कभी लिख पाऊंगी या नहीं - से अलग मैंने हमेशा यह सपना देखा है कि कुछ ऐसा मुझे मिले, जो मेरे बच्चों का गर्व बन सके, और अपनी विरासत की छोटी छोटी चीजों की लिस्ट में मैं यह खास लम्हा भी जोड़ जाऊँ । 

मैं _ अब विदा लेती हूँ रश्मि प्रभा जी, यह साक्षात्कार कैसा रहा, यह पाठकों पर छोड़ती हूँ ... मेरी तो यही ख्वाहिश है कि आपका सपना पूरा हो और उस दिन भी मैं आपका साक्षात्कार लूँ । 

आमीन...

22 मई, 2022

कुरुक्षेत्र _कर्ण _कृष्ण और सार



कल रात

दिखा कुरुक्षेत्र का शमशान

कर्ण की रूह

अश्रुयुक्त आँखों से

धंसे पहिये को निहारती

जूझ रही थी

ह्रदय में उठते प्रश्नों के अविरल बवंडर से ...

- ऐसा क्यूँ . क्यूँ , क्यूँ ???


प्रवाहित होकर भी मैं बच गया

कौन्तेय होकर राधेय कहलाया

गुरु की नींद की सोच

दर्द सहता गया

शाप का भागी बना ...

हर सभा में अपमानित प्रश्नों के आगे

रहा निरुत्तर इस विश्वास में

कि माता कुमाता न भवति

....बुजुर्गों पर रहा विश्वास

पर कुछ न आया हाथ !!!


अंग देश का राज्य दे

मेरा राज्याभिषेक कर

दुर्योधन ने मान दिया

ऋणी बना मुझको अपने साथ किया !

यदि नहीं होता मैं ऋणी

तो क्या कुंती मातृत्व वेश में आतीं

साथ अपने - मुझसे चलने को कहतीं

!!!

केशव को था भान

मुझे हराना नहीं आसान

तो सारथी बन अर्जुन का रथ रखा मुझसे दूर

जब नहीं मिला निदान

तो कैसे लिया यह ठान

कि रथ का पहिया ना निकले

और निहत्थे कर्ण का दम निकले .... !!!


कुंती के मिले वरदान को

मैं तिल तिल जलकर सहता रहा

राधा की गोद में कुंती को ही सोचता रहा

कुंती से जुड़े रिश्ते

मेरे भी थे अपने

पर जो कभी नहीं हुए अपने ....

मैं सुन न सका पांडवों के मुख से ' भईया'

मैं दे न सका द्रौपदी को आशीष

स्व के भंवर में

मैं कण कण 

क्षण क्षण मिटता गया

ऋण चुकाने में सारे कर्तव्य खोता गया

पिता सूर्य ने तो सुरक्षा कवच से सुरक्षित किया भी था मुझे

पर .... उससे भी दूर हुआ !

........क्यूँ !..........


रूह का प्रलाप

वह भी कर्ण की रूह

फिर कृष्ण को तो आना ही था

संक्षिप्त जीवन सार देना ही था ...


कृष्ण उवाच -

**********


अजेय कर्ण

तुमने अपने सारे कर्तव्य निभाए

पर रखा खुद को मान्य अधिकारों से वंचित

.... सूर्य ने तुम्हें डूबने से बचाया

राधा के रूप में माँ का दान मिला

कवच तुम्हारा अंगरक्षक बना

फिर भी तुमने अपमान की ज्वाला में

खुद को समाहित कर डाला !

कर्ण तुम रह ना सके राधेय बनकर

सहनशीलता की अग्नि में

स्व को किया भस्म स्वाहा कहकर ...

अधिकारों से विमुख

करते रहे खुद को दान

अति सर्वत्र वर्जयेत

इससे हो गए अनजान ...


मैंने तो रथ में बिठाकर

रिश्तों के एवज में

तुम्हें बचाने का ही किया था प्रयास

पर तुम ऋण आबद्ध थे कर्ण

तो कुंती के आँचल से अलग

होनी विरोध बन गई

और मैं ...... !!!


मैं विवश था कर्ण

क्योंकि तुमने हर प्राप्य की हदें पार कर

उन्हें गँवा दिया !

तुम दानवीर थे

तुम्हें छद्म रूपों का भान था

आगत का ज्ञान था

तब भी तुमने इन्द्र को कवच दिया

सूर्य ने तुम्हें निराकरण दिया अमोघास्त्र का

पर अपनी परिभाषा में तुमने सिर्फ दिया ...


प्रतिकूल परिस्थितियों में कवच

तुम्हारी विरासत थी कर्ण

दानवीरता सही थी

पर छल के आगे

जानते बुझते

खुद को शक्तिहीन करना गलत था

....

तुम्हारी हार .तुम्हारी मृत्यु

समय की माँग थी

अर्जुन नहीं जीतता

तो निःसंदेह कुंती अपना वचन नहीं निभाती

फिर तुम कहो क्या करते

उस पीड़ा को कैसे सहते !

सच है ,

तुम्हारी जीत अवश्यम्भावी थी

हस्तिनापुर पर तुम्हारा ही सही अधिकार भी था

पर अजेय कर्ण

हस्तिनापुर तुम्हारे हाथों सुरक्षित नहीं था

कब कौन किस रूप में तुम्हारे पास आता

और तुमसे हस्तिनापुर ले जाता

..... फिर तुम्हीं कहो इसका भविष्य क्या होता ?

!!!


रश्मि प्रभा

02 मार्च, 2022

आने को है महिला दिवस...


 


आने को है महिला दिवस... नवरात्र की तरह याद करेंगे सभी महिला को सिंहवाहिनी माँ दुर्गा के नौ रूप में, लेकिन आदिशक्ति बन वह तो आदिकाल से है ... !!!
यशोधरा,सीता,राधा,रुक्मिणी,
गांधारी, द्रौपदी, मणिकर्णिका, दुर्गा भाभी,
निर्भया...
अरे ! हतप्रभ,स्तब्ध क्यूँ हो गए ?
शाश्वत सत्य है यह ।
पीछे मुड़कर देखो _
अहिल्या, अम्बा,
या हमारी सिया सुकुमारी को
कैसे भूल सकते हैं आप या हम !!!
काली,रक्तदंतिका रुप
माँ ने ऐसे ही तो नहीं धरा होगा न !
अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने में,
वह जाने कितनी मौत मरी होगी,
कितनों की मौत की मन्नत मांगी होगी,
कितनों के आगे चामुण्डा बन उतरी होगी,
खुद में त्रिवेणी बनकर,
खुद को तर्पण अर्पण किया होगा ।
धरती बनकर,
भारत बनकर
अभिशप्त कैद से
अपने आप को मुक्त करने का
प्रलाप और निनाद किया होगा,
अपनी उज्जवल छवि को स्थापित करते हुए,
मातृत्व का विराट रुप लिए
ब्रह्माण्ड सा शंखनाद किया होगा ...
आओ,
उस विशेष दिन के नाम
उसकी जिजीविषा के पट खोलें,
सहस्रों दीप जलाए,
बिना किसी जद्दोजहद के
उसके सम्मान में सर झुकाएं,
माँ,बहन,पत्नी, बेटी,गुरु, सखी के नाम पर
महिला दिवस मनाएं ।

02 जनवरी, 2022

नया साल

 

नया साल,

 कुछ शोर

कुछ सन्नाटे में आया

और एक पूरा दिन गुजारकर

अंगीठी के आगे बैठ गया है ।

बीते साल का सूप पीते हुए

यह नया साल ओमिक्रोन से बचने की तरकीब बता रहा है,

और लोग !!!

अपनी अपनी बुद्धिमत्ता के पर्चे बाँट रहे हैं,

"अरे कुछ नहीं होगा,

हुआ भी तो कोई दिक्कत नहीं,

मरना तो है ही,

कैसे - वह भी तय है,

अगर इसीसे तो क्या कर सकता है आदमी !"

और कुछ लोग मासूमियत से सुनते हुए

डबल,ट्रिपल मास्क लगाकर बैठ जाते हैं . . .

"जो भी हो ख्याल तो रखना ही होगा"

ह्म्म्म ...

भीड़ से एक आवाज आती है,

कुछ नहीं होगा यह सब पहनने से,

जब होना है, हो ही जायेगा !

नया साल 

अपनी एक वर्षीय यात्रा को 

ध्यान में रखकर

महामृत्युंजय मंत्र पढ़ रहा है ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...