27 दिसंबर, 2010

नई उम्मीद



मैंने अपना कमरा बुहार लिया है...
जन्म से लेकर अब तक
बहुत कुछ बटोर लिया था
खुद के लिए ही कोई जगह नहीं बची थी !
इसे संवारो,
उसे सहेजो
करते करते भूल गई थी खुद को
यूँ कहो नज़रअंदाज कर दिया था
आज आईने में खुद को देखा
आँखों के नीचे स्याह उदासी
रेगिस्तान सा चेहरा
डूबता मन
...
तब ख्याल आया
किसी ने मुझे संवारा नहीं
सहेजा नहीं
पलभर में मोह भंग हुआ
वर्षों से बटोरती रही थी जो कुछ
उसे बाहर कर दिया ...
...
माना यह मेरे जीने का ढंग नहीं
पर एकतरफा चलकर
मैं जी भी तो नहीं रही थी
दर्द है
पर कम है
काम भी कम
और सोच भी कम !
सोचती हूँ - एक नींद ले लूँ
सोने को तरस गई हूँ
कोई सपना ऐसा देखूं
जिसे हकीकत बनाने की नई उम्मीद जगे
नई उम्मीद फिर से जीने की !!!

02 दिसंबर, 2010

सवेरा हो जायेगा



मुझे अकेलेपन से घबराहट तो नहीं होती
पर जब एक लम्बा$$$$$$$ वक़्त
गुज़र जाता है
तो यादें अलसाने लगती हैं
दीवारें जुम्हाइयां लेने लगती हैं
फिर मैं उम्मीदों की नन्हीं उंगलियाँ थामती हूँ
- जल्दी ही रात होगी
चाहूँ ना चाहूँ
नींद भी आ जाएगी
और सवेरा हो जायेगा ....

30 नवंबर, 2010

गुटुक !



ये बनाया मैंने बांहों का घेरा
दुआओं का घेरा
खिलखिलाती नदियों की कलकल का घेरा
मींच ली हैं मैंने अपनी आँखें
कुछ नहीं दिख रहा
कौन आया कौन आया
अले ये तो मेली ज़िन्दगी है ...

ये है रोटी , ये है दाल
ये है सब्जी और मुर्गे की टांग
साथ में मस्त गाजर का हलवा
बन गया कौर
मींच ली हैं आँखें
कौन खाया कौन खाया
बोलो बोलो

नहीं आई हँसी
तो करते हैं अट्टा पट्टा
हाथ बढ़ाओ .....
ये रही गुदगुदी
कौन हंसा कौन हंसा
बोलो बोलो बोलो बोलो
जल्दी बोलो
मींच ली हैं आँखें मैंने
गले लग जाओ मेरे
और ये कौर हुआ - गुटुक !

26 नवंबर, 2010

अपनी ही निगाह में अजनबी


कई बातें हमें उद्वेलित करती हैं
पर आत्मसात करना हार नहीं
मजबूती है ...
मजबूत दीवारें ही बता पाती हैं
कि मुझे बेधना आसान नहीं ...
बिल्कुल ज़रूरी नहीं
कि हम बाहर बारूद बिछा दें !
धमाके से किसी निर्दोष का अवसान
क्या हमें सुकून देगा
क्या किसी पंछी का बसेरा
फिर कभी हमारे दालान में बनेगा ?
...
हमें मजबूत होना है
सजग होना है
ना कि असली फूलों की खुशबू से विलग होना है
..
दुर्भाग्य !
तरह तरह की दलीलों से
हम बनावटी होकर रह गए हैं ...
चेहरा नकली
बोली नकली
खिलखिलाहट नकली ..
डर लगता है
हम सब अपनी ही निगाह में
अजनबी होकर रह गए हैं !

24 नवंबर, 2010

एक चुटकी नमक




'राजा बनने की धुन में उसका बचपन बीता ...'
कहते हुए
उसके अपने और वह खुद
भूल जाता है
कि वह राजकुमार था !

उसके खेल भी असाधारण थे
वह अयोध्या का राम बनता
या गोकुळ का कृष्ण !
शब्दों की बाज़ी हारते हारते
उसने शब्दों की खेती की
अनमोल बीजारोपण किया
जिसकी उर्वरक क्षमता ने
शब्दों के कोरे महारथियों को
घुटनों के बल
खुद तक आने को मजबूर किया !
प्रजा खुश रही
पर घर की दीवारों ने
बगावत किया ........

राजा की तरह मंद मुस्कान लिए
समूह से अलग चलता राजा
अपनी खुद्दारी का
झूठा दंभ भरता है
हीरे जवाहरातों में
एक चुटकी नमक ढूंढता है

20 नवंबर, 2010

गुजारिश ... (एक काव्यात्मक समीक्षा )




गुजारिश है.. एक छोटी सी गुजारिश
गुजारिश देखिये
औरों के नज़रिए से नहीं
अपना नज़रिया जानने के लिए ..
इथेन का दर्द
सोफिया की सेवा
देवयानी की दोस्ती
ओमार की निष्ठा और प्रायश्चित
डॉक्टर का अपनत्व
माँ के प्रेम की स्पष्टता
स्टेला की आतंरिक समझ...
कहीं भी आँखों से आंसू नहीं बहे
बस मन इथेन को जीता गया
अलग अलग हिस्सों में ...
लीक से अलग एक सच
शोर से परे कुछ जज्बाती गीत
जो गुजारिश करते हैं
प्यार को समझने की !

08 नवंबर, 2010

अधिकार वजूद का



एक स्त्री प्रेम में
राधा बन जाती है
खींच लेती है एक रेखा प्रेम की
एक मर्यादित रेखा
सीमित हो जाती है उसकी दृष्टि
एक साथ वह कई विम्ब बन जाती है
- सीता, राधा, ध्रुवस्वामिनी,यशोधरा ,
हीर, सोहणी

पर पुरुष !
क्यूँ नहीं बनता कोई विम्ब
खींचता कोई मर्यादित रेखा
उसकी रेखाहीन ज़िन्दगी में
कई चिताएं सुलगती हैं
जीते जी राधा, सीता,
ध्रुवस्वामिनी,यशोधरा की मौत
हर बार होती है
एक अंतहीन सिलसिला है
सुलगते एहसासों का ...

प्यार परिवर्तन नहीं मांगता
पर अधिकार तो मांगता है
एक ठहराव का
अपने वजूद का

02 नवंबर, 2010

इस तरह जाना और माना



बहुत छोटी थी
हाँ यही कोई ५ ६ साल की
जब वह चला गया ...
कितनी लड़ाई होती थी 'दीदी' सुनने के लिए
....
और वह चला गया
समझ ही नहीं पायी कि यह जाना
कभी न आना होता है
और जैसे जैसे लगा
मुझे लगा --- मैं गरीब हो गई
'दीदी' कहने को कोई नहीं
...........
कोई मिलता , पूछती
'दीदी' कहोगे मुझे
धीरे धीरे जाना यह आसान नहीं
...........
........
स्कूल में एक दोस्त की ज़रूरत थी
ऐसा दोस्त
जो मेरा हो सिर्फ मेरा
माँ ने कहा था
दोस्त  है वह डायरी
जहाँ हम कुछ भी लिख सकते
और कोई उन पन्नों को नहीं खोल सकता ...
..........
और खोज में जैसी तैसी कॉपी उठा ली
जिसके पन्ने बड़ी जल्दी फट गए
या स्याही फ़ैल गई
तब जाना यह भी इतना आसान नहीं
तभी तो अपने बच्चों को बताया---
'एक दोस्त मिल जाये
तो समझो तुम भाग्यशाली हो
दूसरा - बहुत है
तीसरा - हो ही नहीं सकता'
.........

फिर मैंने प्यार की तरफ देखा
क्या होता है प्यार !
किसी का अच्छा दिखना?
किसी की याद आना ?
किसी की राह देखना ......
तभी माँ ने एक कहानी सुनाई
इंग्लैंड के एडवर्ड की कहानी
जिन्होंने प्यार के लिए
इंग्लैंड का राज्य त्याग दिया ............
मुझे एडवर्ड से प्यार हुआ
यूँ कहिये ... एडवर्ड ने एहसास दिया कि
प्यार में प्यार से ऊपर कुछ भी नहीं
मैंने भूखे रहकर देखा
मैंने उस एक ख्वाब के आगे
अंगारों पर चलकर देखा
देखा -
मेरे अन्दर सिमसन जीती है
सोहनी, और हीर जीती है
मैंने प्यार किया बहुत प्यार किया
और ज़िन्दगी को गीत बना लिया .....

इन गीतों में मेरी धड़कनों का प्राण संचार हुआ
शक्ल उभरे
मुझे माँ कहा
और मेरी सोच को
खुद पर भरोसा हुआ !

30 अक्तूबर, 2010

फिर से है !



सारे दरवाज़े बन्द कर
चुन लाई थी कुछ मोहक सपने
और सिरहाने छुपा दिया था ...
चमकती आँखों पर
पलकों का इठलाकर झपकना
शुरू हुआ ही था
कि दरवाज़े थरथराने लगे !

जाने कौन सा कतरा दर्द का
बाकी रह गया था
जो सर पटक रहा था दरवाज़े पर ...

सपने चौंक पड़े
पलकें स्थिर हो गईं
शोर से निजात पाने को
दरवाज़ा खोलना पड़ा...

दर्द का स्वागत करने को
हौसलों की लौ को तेज किया है
....
सुबह का इंतज़ार फिर से है !

28 अक्तूबर, 2010

अस्तित्व


हम सच को नकार के
अपने बाह्य और अंतर को नकार के
एक दूसरा स्वरुप प्रस्तुत करते हैं
तो फिर हम हम नहीं रह जाते ...

हम कहते हैं
मृत्यु अवश्यम्भावी है
फिर भी इससे लड़के हम खुद को जीते हैं न
जो हमारे अंतर को ख़त्म करना चाहता है
उसके आगे
खुद को प्रोज्ज्वलित करते हैं न

पर जब हम उसकी रौशनी से प्रभावित होते हैं
तो हमारा कमरा स्याह हो जाता है
हम हम नहीं रह पाते

अपनी सोच को बनावटी मत बनाओ
जब रोने का दिल करे तो हर बार हंसो मत
ऐसे में
तुम्हारा अस्तित्व तुम्हारे एकांत में
तुम्हें जीने नहीं देगा
और तब तुम खुद के आगे ही नहीं
पूरे समूह में पागल घोषित किये जाओगे ...

क्या कहा ?
'क्या फर्क पड़ता है?'
पड़ता है -
आईने में तुम खुद को ताउम्र ढूंढते रह जाते हो
और आईना
वह भी छद्म रूप धारण कर लेता है !

20 अक्तूबर, 2010

फिर उलझन कैसी ?



तुम्हें जन्म दिया माँ ने
सिखाया समय ने
तराशा खुद को तुमने
तेज दिया ईश्वर ने
यूँ कहो अपना प्रतिनिधि बनाया ...
इसलिए नहीं कि तुम सिर्फ निर्माण करो
अनचाहे उग आए घासों को हटाना
यानि नेगेटिविटी को मारना भी तुम्हारे हाथों में दिया ...

'निंदक नियरे राखिये'
क्रिमिनल सोचवालों को नहीं
....
उसकी पूरी ज़मीन काँटों से भरी होती है
उसे सींचना
तुम्हारा बड़प्पन नहीं
अन्याय को बढ़ावा देना है !

तुमको गुरु ने जो दिया
लड़कर, सहेजकर ....
उसमें फिर से गिद्ध दृष्टि ?
अपनी ताकत को अपने सुकून में लगाओ
एक और लड़ाई में नहीं
तुम्हारे पदचिन्ह तभी गहरे होंगे ...
जब तुम सत्य का साथ दोगे
तो इन चिन्हों के अनुयायी होंगे
ये बात और है कि संख्या कम होगी
क्योंकि सत्य की राह को
कम लोग ही अख्तियार करते हैं !

क्या गुरु के इस वचन में सारे अर्थ नहीं निहित हैं ---
'कृष्ण को पाना है
तो अर्जुन बनो
राधा बनो
सुदामा बनो '...

कृष्ण दुर्योधन के सारथी नहीं बने
दुर्योधन ने चाहा भी नहीं ...
सत्य जानते हुए भी पितामह
कर्तव्य की दुहाई देकर कौरवों के साथ रहे
तो परिणाम ???

कर्तव्य और अधिकार का एक व्यापक अर्थ है
दोनों अकेले कभी नहीं चलते
ना एकतरफा कर्तव्य होता है
ना अधिकार !

तुम स्वयं वह आधार हो
जिससे अमरनाथ का शिवलिंग बनता है
स्मरण करो---
एक साल यह शिवलिंग नहीं बना ... क्यूँ ?
अन्याय के दृश्यों ने बर्फ को भी
मूक और अपाहिज बना दिया !

तुम अपने द्वन्द से
अनचाहे विषबेलों को सींच रहे हो
उनको उखाड़ोगे नहीं
तो ईश्वर की इच्छा ही अधूरी होगी ...

कुरुक्षेत्र के मैदान में
सब अपने ही औंधे पड़े थे
पर न्याय तो यही था ...
कुंती को युद्धिष्ठिर ने जो शाप दिया
वही सही था ...
कैकेयी को यदि भरत ने नहीं गलत कहा होता
तो कैकेयी को अपनी गलती का आभास न होता !
भरत ने उनका त्याग किया ...
कर्ण ने अपने तिरस्कार को याद रखा
... ५ पुत्रों का वरदान देकर
अपनी मृत्यु का दान दिया
पर दुर्योधन की मित्रता का मान रखा

ईश्वर ने सत्य का स्वरुप हर बार दिखाया है
तो फिर उलझन कैसी ?

19 अक्तूबर, 2010

सागर


खो देने का भय जब प्रबल होता है
तो सागर नाले की शक्ल में जीना चाहता है
...
पर उसकी उद्दात लहरें
उसका स्वाभिमान होती हैं
जो किनारे से आगे जाकर
अपना मुकाम ढूंढती हैं
...
उस खोज में
अगर वह कुछ देता है
तो कितना कुछ बहा ले जाता है
संतुलन सागर को नहीं
सागर तक जानेवालों को रखना होता है ...

09 अक्तूबर, 2010

अच्छा लगता है


खुद को लिखना
खुद को पढ़ना
खुद को सुनना
अच्छा लगता है...
खुद को देखना
खुद संग मुस्कुराना
अच्छा लगता है ...

यह अकेला बड़ा सा कमरा
मुझसे कभी नहीं उबता
खुद को पुकारना
खुद का आना
इसे भी अच्छा लगता है...

खुद संग बैठकर चाय पीना
बिस्तर की सलवटों को ठीक करना
अच्छा लगता है
खुद के सन्नाटे में
खुद के विचारों का शोर
अच्छा लगता है ...

खुद से दोस्ती
खुद से प्यार
ज़बरदस्त विश्वास
आखिर ये मेरा 'मैं' मुझसे दूर जायेगा कहाँ
खुद में पूरा रहना
अच्छा लगता है !!!


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आदरणीय शेखर सुमन जी ने जो प्रयास शुरू किया है हमारी यादों में झाँकने का
एक खूबसूरत अर्थ तलाशने का , उसमें खुद को पाना अच्छा लगा है

30 सितंबर, 2010

पहचान चाहिए


सब बड़े हो गए
वे पौधे भी
जो मेरे इर्द गिर्द उग आए थे
पर मैं !
सदियों से खड़ा एक द्रष्टा हूँ
राहगीरों को देखता हूँ
पक्षियों को सुनता हूँ
जवान वृक्षों के गर्वीले कद पर
नाज करता हूँ

फिर अपने कोटर पर नज़र जाती है
जहाँ हर नए मौसम में
एक नया घोंसला होता है
नए पंख
नई उड़ान
इंतज़ार राहगीरों का
नए मौसम का

पर सबसे अधिक प्रतीक्षा होती है
एक पहचान की
चाहता हूँ कोई आए
मेरा इतिहास बताये
जर्जर पत्तियों से
हरे होने की करवटों का
मर्म बताये ....

बहुत गुज़रे नाज़ से
अब तो अपनी पहचान चाहिए

19 सितंबर, 2010

पागल हो तुम भी !


पागल हो तुम भी
खुद के लिए नहीं जीती
खुद के लिए नहीं सोचती
और ताखों से प्यार करती हो
कई बार तुम्हारा दिया निस्तैल फूटता है
पर ताखों को रौशनी देना नहीं भूलती
प्यार दो तो प्यार मिलता है
अपने कभी पराये नहीं होते '
के भ्रम में जीती हो
पागल हो तुम भी !

16 सितंबर, 2010

तेरा सोंधा चेहरा ...


मैं घड़े का पानी हूँ
तेरी प्यास बुझाने को
हर दिन भर जाती हूँ
सोंधी सोंधी खुशबू
सोंधे सोंधे स्वाद में डूबा
तेरा सोंधा सोंधा चेहरा
... कितना अपना लगता है !

13 सितंबर, 2010

एक दिल मेरे पास रख जाओ


सपने में भी
अतीत के साए मुझे डराते हैं
अलग-अलग रास्तों पर
दहशत बनकर खड़े रहते हैं !
चीख ..अन्दर ही घुटकर रह जाती है
खुली आँखों में
फिर नींद नहीं आती !
सहलाती हूँ सर
गुनगुनाती हूँ लोरी
पर ये साए...
मुझे बीमार कर देते हैं !

रोज़ कलम से एक शब्द उठाती हूँ
दर्द में डुबोती हूँ
.... कहना है वो दर्द
जिसकी किरचें मुझे लहुलुहान करती हैं
संभव हो
तो एक दिल मेरे पास रख जाओ
मुझे बातें करनी हैं ...

07 सितंबर, 2010

माँ ...


एक माँ
मन्नतों की सीढियां तय करती है
एक माँ
दुआओं के दीप जलाती है
एक माँ
अपनी सांस सांस में
मन्त्रों का जाप करती है
एक माँ
एक एक निवाले में
आशीष भरती है
एक माँ
जितनी कमज़ोर दिखती है
उससे कहीं ज्यादा
शक्ति स्तम्भ बनती है
एक एक हवाओं को उसे पार करना होता है
जब बात उसके जायों की होती है
एक माँ
प्रकृति के कण कण से उभरती है
निर्जीव भी सजीव हो जाये
जब माँ उसे छू जाती है
..............
मैं माँ हूँ
वह सुरक्षा कवच
जिसे तुम्हारे शरीर से कोई अलग नहीं कर सकता
....
हार भी जीत में बदल जाये
माँ वो स्पर्श होती है

तो फिर माथे पर बल क्यूँ
डर क्यूँ
आंसू क्यूँ
ऊँगली पकड़े रहो
विपदाओं की आग ठंडी हो जाएगी

05 सितंबर, 2010

परछाईं


एक परछाईं सी गुज़रती है
खाली खाली कमरों में
अपलक, अनजान, अनसुनी सी मेरी आँखें
उसे देखती रहती हैं ...

परछाईं !
आवाज़ देती है उन लम्हों को
जिसे कतरा कतरा उसने जिया था
अपनी रूह बनाया था ...

लम्हों के कद बड़े होते गए
परछाईं ने उनके पैरों में
लक्ष्य के जूते डाल दिए
और अब
उनकी आहटों को
हर कमरे में तलाशती है
दुआओं के दीप जलाती है
फिर थक हारके
मुझमें एकाकार हो जाती है...

उसको दुलारते हुए
मेरी अनकही आँखें
बूंद बूंद कुछ कहने लगती हैं
हथेलियाँ उनको पोछने लगती हैं
फिर स्वतः
फ़ोन घुमाने लगती हैं
'कैसे हो तुम ? और तुम? और तुम?
... मैं अच्छी हूँ '

क्या कहूँ ...
कि खुद को इस कमरे से उस कमरे
घूमते देखा करती हूँ
क्या समझाऊँ
खाली शरीर की बात क्या समझाऊँ !
.....................!!!
क्या कहूँ
कैसा लगता है खुद से खुद को देखना ...

01 सितंबर, 2010

क्यूँ कृष्ण ?


बहुत प्यार किया था राधा ने तुमसे
तुम्हारी बांसुरी से
कदम्ब की डार से
यमुना के किनारे बैठी रही
सुधबुध खोये
नहीं थी परवाह उसे ज़माने की
ना घरवालों की
वो तो दीवानी थी बस तेरे नाम की
कहाँ खबर थी उसे उन आँधियों की
जो ले जाएगी कृष्ण को उससे दूर
....
कृष्ण तुम गए
रथ के आगे लेटी थी राधा
तो एक सूत्र थमा दिया था तुमने
'मेरे नाम से पहले तेरा नाम होगा'
इस एक सूत्र को परिणय सूत्र बनाया राधा ने
कभी अपने द्वार नहीं बन्द किये
जाने कब कृष्ण आए
दिया (विश्वास) जलता रहा
अँधेरा देख कृष्ण लौट न जाएँ
इस आस में जीवन वार दिया ...
रुक्मिणी, सत्यभामा ...
कहीं तो तुम्हें ठौर नहीं मिला
लौटे थे गोकुळ...
राधा के लिए
या खुद के लिए ?
बड़ा मुश्किल प्रश्न है ना कृष्ण ?
...........
सत्य है यही कि
राधा और कृष्ण ही सत्य रहे
कोई उस सत्य को मिटा नहीं पाया
मृत्यु पर विजय पाकर
तुम जन्म लेते रहे
राधा ने भी अनुसरण किया
फिर क्यूँ राधा को छोड़ा
फिर वही कहानी क्यूँ दुहराई ?
क्या राधा की प्रतीक्षित आँखों का मोह नहीं तुम्हें ?
क्या तुम्हारे राज्य-यज्ञ में
हमेशा उसे अपनी आहुति देनी होगी?
युग बदल गए,
लोग बदल गए
अब तो ठहरो कृष्ण
प्यारी राधा की इतनी परीक्षा !
....
आखिर क्यूँ कृष्ण ?

31 अगस्त, 2010

भ्रम !


बहुत बड़ी धरती मुझे मिली है
मिला है बहुत बड़ा आकाश
इस छोर से उस छोर तक
क्षितिज का साथ है !

28 अगस्त, 2010

मैं कहाँ हूँ !!!


मैं हमेशा खो जाती हूँ
फिर ढूंढती हूँ खुद को
सबके दरवाज़े खटखटाती हूँ
पर कहीं नहीं मिलती...
दम घुटता तो है
पर तलाश जारी है अपनी

कभी-कभी तब यूँ ही
बचपन की कहानी याद आती है
'अकेले कहीं मत जाना
वरना बूढ़ा बाबा
अपनी झोली में पकड़ कर ले जायेगा ...'
सोचती हूँ -
कब निकली बाहर !
कब ले गया बूढ़ा बाबा मुझे !
........
हँसते हो ?
क्या कहा .
ये मेरा भ्रम है , बुद्धू हूँ मैं ?
अगर सच में ये मेरा भ्रम है
तो मैं कहाँ हूँ
कहाँ हूँ !!!

18 अगस्त, 2010

लिखो कुछ मनचाहा



उन लम्हों का हिसाब हम क्यूँ करें
जिन पर होनी की पकड़ थी
हम कितना भी कुछ कहें
हमारी राहें जुदा थीं
तुम आकाश लिख रहे थे
मैं पिंजड़े की सलाखों से
आकाश को पढ़ना चाह रही थी ...

बिना स्याही
तुमने बहुत कुछ लिखा
और बन्द कमरे की स्याह घुटन में
मैंने बहुत कुछ पढ़ा
तुम लिखना नहीं भूले
मैं पढ़ना नहीं भूली
पर अतीत के वे पन्ने
जो अनचाहे लिखे गए
उनको मैं पढ़ना नहीं चाहती
क्या तुम उन शब्दों को मिटा सकते हो ?

यकीन करो -
अभी भी मेरे पास खाली स्लेट है
और कुछ खल्लियाँ
और कुछ मनचाही इबारतें
वक़्त भी है -
तो लिखो कुछ मनचाहा
ताकि इस बार
खुली हवा में मैं पढ़ सकूँ
सबकुछ सहज हो जाये ...





12 अगस्त, 2010

अकेलापन और मेरी साँसें


अकेलेपन की हद थी !
मानसिक सन्नाटे में
पत्ते खड़खडाते थे
अनचाहे लोग जब बोलते
तो सिर्फ उनकी जुबान हिलती नज़र आती
कुछ सुनाई नहीं देता था ...

जंगल में भटकता मन
ख़ास फूलों की तलाश में
लहुलुहान होता गया ...
समझदारी ?
अकेला मन
कभी समझदार नहीं होता
हाँ भीड़ से अलग होता है !

पर क्या सारे अकेले मन
एक से होते हैं?


नहीं -
अकेला मन किसी का साथ चाहता है
अकेला मन शंकाओं से भयभीत होता है
अकेला मन शतरंज की बाज़ी खेलता है

पर भीड़ हो या अकेलापन
ज़िन्दगी रूकती कहाँ है
क़दमों के कुछ निशान काफी होते हैं
जीने के लिए
जैसे मेरे लिए -
ये निशान ही मेरी साँसें हैं !

11 अगस्त, 2010

मेरी उसकी बात ...एक पल की



'कहाँ हैं सात रंग '
'हमारे प्यार में'
'किधर?'
... उसने मेरे माथे को चूम लिया
और मेरे चेहरे पर देखते-ही-देखते
इन्द्रधनुषी रंग बिखर गए

'कहाँ है खुशबू '
'हमारे साथ में '
और उसने मुझे बाहों में भर लिया
मलयानिल मेरे रोम-रोम से बहने लगा

'कहाँ है नज़ाकत '
'हमारे विश्वास में '
और कमर में खूंसे आँचल के सिरे को
उसने हौले से खींच लिया
पूरा शरीर सरगम की धुन पर
थिरक उठा

'कहाँ है मासूमियत '
'हमारे ही प्यार में'
और अपनी हथेलियों से
मेरी आँखों को बन्द किया ...
मैं पूरी हो गई
एक पल में !

09 अगस्त, 2010

सच का सामना ???




सच का सामना ?
किसका सच ?
कैसा सच ?
जिस सच के मायने
अलग-अलग होते हैं ?

एक ही सच !
कहीं सही, कहीं गलत,
और कहीं वक़्त की मांग !

रोटी में कभी चाँद
कभी भूख
कभी हवस !

कोई शरीर को आत्मा बना जीता है
कोई शरीर को माध्यम बना जीता है
कोई शरीर को टुकड़े-टुकड़े में
विभक्त कर जीता है
बात कहीं गलत
तो कहीं सही
कहीं व्यथा बनकर चलती है
किसी की ज़िन्दगी थम जाती है
कोई पीछे मुड़कर नहीं देखता ...
एक ही कैनवस पर सोच अलग-अलग होती है !

हिसाब अपने दिमाग का होता है
हम अपने दिमागी अदालत में
अपना निजी फैसला देते हैं
मौत की सज़ा सुनाने से पहले भी
सामने वाले की रज़ा नहीं सुनते

प्यार और ज़िद
भूख और प्यास
नींद और सुकून में
बड़ा फर्क होता है
आसान नहीं सच को समझना
तो किस सच का सामना?
और किस आधार पर?

सरेआम की गई हत्या के सुराग नहीं मिलते
तो फिर घुटे हुए सच के धागों को सुलझाना
उनको कटघरे में लाना
उन पर फैसला देना
अमानवीय कृत्य है

30 जुलाई, 2010

मेरे घर आना




तमाम घरों में बड़े बड़े ताले लगे होते हैं
एक सख्त लोहे का ग्रिल
दरवाज़े पर एक होल
घंटी बजे तो देख लो
कौन है !
बड़ा खतरा है- जाने कब क्या हो जाये !
बेशकीमती सामानों से घर भरा है
मामूली चीजों की तो कोई औकात नहीं
वही चीजें हों
जिनकी कीमत आसमान छुते हों
और सबसे अलग हों
अब घर के रंग रूप ही बदल गए हैं
सामान -
प्रदर्शनी में रखे अदभुत वस्तु लगते हैं
रहनेवाले लोग कांच के नज़र आते हैं
पॉलिश इतनी ज़बदस्त
कि फिसलन ही फिसलन
बड़े तो बड़े , छोटों की अदा पर
आँखें विस्फारित रहती हैं !
क्या है असली, क्या है नकली
कोई जोड़ घटाव नहीं
अंग्रेजों की गुलामी से अलग
सब अपनी कामनाओं के गुलाम हो गए हैं
तुम.. तुम.. तुम
कोई भी संतुष्ट नहीं
रात बेचैनी में गुज़रती है
दिन मुखौटों में .............

ऐसी दहशत में
मैंने अपने घर के दरवाज़े खोल दिए हैं
मेरे घर में बेशकीमती चीजें नहीं
अनमोल एहसास हैं
एक संदूक - यादों की
एक संदूक - मासूम सपनों की
एक संदूक- मुस्कान की
हर कमरे में मैंने उन दुआओं को मुखरित किया है
जिनसे रिश्तों की गर्माहट बनी रहती है
जब हार जाओ बाज़ी लक्ष्यहीन दौड़ की
तो बेख़ौफ़ यहाँ आना
एहसासों के मध्य लम्बी साँसें लेना
फिर मुड़ना
तुम्हें अपने वे सपने दिखाई देंगे
जिनमें सिर्फ असली रंग भरे थे
एक बार -
मेरे घर आना !...

28 जुलाई, 2010

हम कुछ भी कर सकते हैं


अचानक हम बहुत अकेले हो गए हैं
सच है कि इस अकेलेपन में
हमारी ही जीत है
सफलता है
भविष्य है
हमारी शुरुआत है ...
पर !
अकेले चले नहीं
तो घड़ी की सूई थम गई है
सोच की दिलचस्प उड़ान
रुक गई है
खिलखिलाते झरने का पानी
सूख चला है
तब हम क्या करें !
चलो खूब बातें करते हैं
इतनी कि हमारे शहर चलने लगें
और करीब हो जाएँ
भरोसा है न खुद पर ?
"हम कुछ भी कर सकते हैं ..."

21 जुलाई, 2010

जल्दी आओ ...




मन उदास रहता है
कई बार...
हवा की खुशनुमा चपल चाल भी
अच्छी नहीं लगती
ज़मीन पर पाँव रखने का
चलने का दिल नहीं होता
अपने सारे प्रिय खिलौने
सहमे-सहमे नज़र आते हैं
मोबाइल हाथ में लिए
देखती रहती हूँ ...
किसका नंबर घुमाऊं
पर रुक जाती हूँ !
पता नहीं क्या कर रहे होंगे
परेशान होंगे
व्यस्त होंगे !
और मैं कहूँगी भी क्या ?
कि हवा अच्छी नहीं लगती ..
सब हँसेंगे
'ये क्या बात हुई '
पर क्या यह सहज बात है ?
सब हवा को तरस रहे
और मैं हवा से बेज़ार हूँ
यह तो एक बीमारी हो गई !
कारण?
कौन ढूंढेगा ?
और ढूंढ भी लिया तो इलाज !
न हवा को समझाया जा सकता है
न मुझे बहलाया जा सकता है
(बहल जाने की उम्र होती है) !

ऐसे में -
चल मन
एक छोटा सा ब्रेक लेते हैं
जिन नंबरों को घुमाना चाहती हूँ
उन्हें पास बुलाते हैं
बेसिर पैर की बातें करते हैं
और एक कमरे में
बेतुकी बातों पर हँसते-हँसते सो जाते हैं
.............
सुबह की चाय तब बनेगी
जब नींद पूरी होगी
जब सब साथ हों
तो एक चाय भी बिना तू तू मैं मैं के
कहाँ स्वादिष्ट होती है !

तो देर किस बात की ?
हलो ...
(ख़ास नाम ख़ास लोगों को पता है)
कोई सवाल नहीं ,
जल्दी आओ ...

14 जुलाई, 2010

कुछ तो है


मुझे नहीं मालूम
नशीली आँखों का राज़
पानी भी मयस्सर नहीं था जिसे
उसे नशे की क्या पहचान !
मुझे नहीं पता
आज सूरज क्यूँ निकला है
चर्चा तो यही थी कि
अँधेरे का साम्राज्य होगा
इस तरह अचानक
सूरज दोस्त बनेगा
गुमां न था ....
सात घोड़े के रथ पे सवार
भाग्य का शंखनाद करता सूरज
परिक्रमा कर रहा है
एक ही धुन , एक ही राग-
अब सूरज कभी अस्त नहीं होगा ... !

मुझे नहीं मालूम
मेरे रोम-रोम में
इन आँखों ने क्या जादू किया है
पर कुछ तो है ..
जिसने सुरक्षा कवच की तरह
मेरा हाथ थामा है
कुछ है,
जिसने बिना स्पर्श के
मुझे रोमांचित किया है

नहीं जानती - सत्य और असत्य
सही और गलत
स्वप्न और यथार्थ
पर कुछ तो है
जो मेरी धडकनें सुनाई देने लगी हैं
कुछ तो है
तभी तो
आत्मा परमात्मा को छू लेने को व्याकुल है

09 जुलाई, 2010

आज को जियो


आज को जीना चाहते हो
तो उस आज को जियो
जो रात तुम्हारे सिरहाने की बेचैनी ना बने
उधेड़बुन और जोड़ घटाव में
सुबह ना हो जाये
और वह आज एक प्रश्न ना बन जाये...

अतीत को उतना ही भूलो
जितनी ज़रूरत हो
अतीत को जेहन में ना रखा
तो आज को तराश नहीं पाओगे !
...
जो कहते हैं अतीत को भूल जाओ
उनसे दूरी बनाकर चलो
याद रखो-
वे जिस सबक को भूल जाने की सलाह देते हैं
अपने आल्मीरे के लॉकर में
उसे संभालकर रखते हैं ...

और भविष्य !
आज ही तुम्हारा भविष्य है
आज को संवारो
आज हंसो
आज को जियो....
कल को भविष्य माना तो एक ही सार होगा
तुमने क्या पाया?
तुम्हारा क्या गया जो रोते हो !!!

रामायण तुम्हें सुनाते हैं

http://www.youtube.com/watch?v=myx8Lb5NAes

03 जुलाई, 2010

मंजिल के लिए




कहीं कोई अंतर ही नहीं,
सारे रास्ते दर्द के
तुमने भी सहे
हमने भी सहे
तुमको एक तलाश रही
मेरे साथ विश्वास रहा

'कौन है ये?' तुम चौंकते रहे
तुम साथ हो तो सही ...
सोचकर मैं शक्ति का पर्याय बनी
दर्द ने तुम्हारे अस्तित्व को डगमगा दिया
दर्द ने मुझे मेरे अस्तित्व की पहचान दी
दर्द ने तुम्हें सजग बनाया
दर्द ने मुझे गंगा यमुना के मध्य
सरस्वती बनाया (जो हो ,पर दिखे नहीं)....

तुम्हारे मन का कोई संशय
मुझे विचलित नहीं करता
गहरे घाव एक बार में नहीं भरते ...!
मेरे घाव गहरे तो हैं
पर मरहम इतने असली रहे
कि आंसू भी खिलखिलाकर बहे....

दर्द का पलड़ा मेरा भारी रहा
शरीर और मन दोनों की हत्या हुई
तुम्हारे अस्तित्व का अनादर हुआ
और तुमने स्वयं शरीर और मन को मार दिया
शुक्र है ,
मैं मरी नहीं
मेरी साँसों ने मुझे गीता का उपदेश दिया
तुम्हारी रूकती साँसों तक पहुँचने का मार्ग दिया
अब ना तुम अकेले हो ,
ना अस्तित्वहीन ....

सत्य ये है----
कि तुम शक्ति का स्रोत हो
शिव का त्रिनेत्र
जिसके लिए वक़्त मुक़र्रर था

'तांडव' क्रोध का ही नहीं होता
शांत, सुकून भरे चेहरे का भी होता है
आँखों से बरसते प्रेम का भी होता है
बिना किसी शस्त्र के
बिना चक्रव्यूह के
बिना किसी छल के
.............................
रख लो अपनी मजबूत हथेली में मेरी हथेली
काफी है मंजिल के लिए

01 जुलाई, 2010

बदले रूख



अपनी डायरी के वे पन्ने
जो मेरे सपनों में फड़फड़ाते हुए
पृष्ठ दर पृष्ठ मुझे डराते थे
उन्‍हें मैंने तुम्हारे सुरक्षा के घेरे में रख दिया है
और खुद लौट गई हूँ
परी लोक में ..
मेरे नए पंख मुझसे कह रहे हैं
'एक लम्बी उड़ान
आज तुम्हारे हाथ है'
सम्पूर्ण आकाश, चाँद
आज फिर मेरे दोस्त हैं
आज फिर
मेरी आँखों की झील में
मासूम नन्हें नन्हें ख्याल हैं
किसी बच्चे के हाथों बनी
कागज़ की नाव जैसे
आज
इस नाव के डूबने का कोई खतरा नहीं
आँधियों ने रुख बदल लिया है
कोई पास बैठा लिख रहा है
एक महाकाव्य -- मेरे नाम

17 जून, 2010

मैं हूँ तो


मैं एक संभावना हूँ
मुझसे सुर निकल सकते हैं
मैं आग बन सकती हूँ
मैं शीतल बयार
मैं सुबह की अजान
मैं कुरआन
मैं शंखनाद
मैं उम्मीद की किरण
मैं विश्वास का दीया
मैं उठती लहर
महत्वाकांक्षाओं की उड़ान
मंजिल
आकाश
धरती
वृक्ष
पक्षी
अदृश्य की उज्जवल खोज ....

तुम मुझे कुछ भी बना लो
जीतोगे
क्योंकि मैं संभावना हूँ
एक कल्पना
जिसकी पहुँच हकीकत तक है ..

12 जून, 2010

क्लिक !


बड़े गंदे हो चले थे शब्द
करीने से सजाना मुश्किल हो चला था
बच्चों की तरह धूल में सनकर
शरारत से हँस रहे थे ...
मैंने भी अच्छी माँ की भूमिका निभाई
टब में पानी लिया
शैम्पू डाला
और शब्दों को उड़ेल दिया
ब्रश से रगड़ा
मुलायम तौलिये से सुखाया
पाउडर लगाया
आँखों में काजल
रेशम जैसे बालों की पौनी टेल बनाई
और माथे पर काजल का टीका लगाया
अब मेरे शब्द तैयार हैं
लग रहे हैं न सुन्दर?
अब एक फोटो हो जाये -
क्लिक !

10 जून, 2010

फिर भी...


क्यूँ हो रहा है ऐसा
मेरी मुस्कुराहट
हल्की हो गई है
ख्वाब कुछ संजीदा से हो गए हैं
आँखों में अकेलेपन की नदी बहने लगी है...

यूँ मैंने प्यार की पाल खोल दी है
तूफ़ान का शोर ना हो
व्यवधान न हो !
और तो और
दुआओं का धागा भी अदृश्य को बाँधा है
फिर भी...

फिर भी ख्वाब कुछ संजीदा से हैं
आँखों में अकेलेपन की नदी है
मुस्कान ....

दुआ है दुआओं का असर दिखाई दे
बेचैन मन को किनारा मिल जाये ..





08 जून, 2010

कोयल








सुबह आँख खुलते
सुनती हूँ कोयल की कूक
मुझे कोई अपना याद नहीं आता
मैं तो बस कोयल की मिठास
और उसके बदलते अंदाज में खो जाती हूँ

कोयल गाती है
फिर जोर से बोलती है
मैं उसकी हर अभिव्यक्ति को सुनती हूँ
एक गीत, एक पुकार, एक झल्लाहट ..
क्या नहीं होता उसके तेवर में !

कहती है कोयल-
'मेरी मोहक तान
और याद कोई और !'

मैं हर दिन कहती हूँ-
'कोयल
मैं बस तुम्हें सुन रही हूँ
जब तक तुम गाओगी
मैं सुनती रहूंगी ..'

सुनते ही कोयल की कुहू कुहू
सुकून में बदल जाती है
और वह एक डाली से दूसरी डाली का सफ़र
आह्लादित स्वर में करती है
और मेरा पूरा दिन मीठा हो जाता है !

03 जून, 2010

अगले जनम .....




गरीबी !
नन्हीं-नन्हीं खुशियाँ
नन्हें-नन्हें ख्वाब..
पैसे के लिए
बेटी को बेचना
सपनों को मिट्टी में मिलाना
बड़े ठाकुर की शतरंज का प्यादा बनाना
पूरी सांसें दूसरों की धरोहर ...!
फिर भी कहना
'अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो'-- क्यूँ?

कितने जन्म?
कितने जनम सज़ाएआफ़्ता ज़िन्दगी के लिए ?
बहुत हुआ खेल
अब तो सबको बेटा ही दीजो प्रभु
बेटी का नामोनिशान ही मिटा दीजो प्रभु
सिक्के के दूसरे पहलू का खेल
दिखा दीजो प्रभु ...

अगले जनम ये सबक सीखा ही दीजो
किसी के घर में बेटी ना दीजो

31 मई, 2010

तुम कहाँ हो


एक बादल आकर रुका है
कुछ नम सी हवाओं ने छुआ है
तुम कहाँ हो
बूंदें बरसने को हैं
मन सोंधा हो उठा है
चेहरे के इन्द्रधनुषी रंग
आँखों से टपकने लगे हैं
कोई देख ले
उससे पहले आ जाओ

फिर जमके बारिश हो
हवाएँ चलें
बिजली चमके
बादल गरजे
तुम्हारे साथ
मैं धुली धुली पत्तियों सी हो जाऊँ



29 मई, 2010

भय और सच


सुबह आँखें मलते
सूरज को देखते
मैं सच को टटोलती हूँ
ये मैं , मेरे बच्चे और मेरी ज़िन्दगी
फिर एक लम्बी सांस लेती हूँ
सारे सच अपनी जगह हैं

अविश्वास नहीं
एक अनजाना भय कहो इसे
हाँ भय
उन्हीं आँधियों का
जिसने मेरा घरौंदा ही नहीं तोड़ा
मुझे तिनके-तिनके में बिखराया

तिनकों को मैंने समेटा
मन्त्रों से सुवासित किया
होठों पर हँसी दी
पर एक अनजाने भय से दूर नहीं हो सकी
न इन तिनकों को कर पायी...

अब इसे लेकर ही यात्रा करनी होगी
क्योंकि
आँधियों से लड़ने के लिए इस भय का होना ज़रूरी है
भय ही सांकलों को बन्द करता है
भय ही कहता है चौकन्ने रहो
भय ही हमारी पकड़ को मजबूत करता है
आहट कोई भी हो
हमें सजग करता है
सुबह सूरज को भी गौर से देखकर ही मानती हूँ
यह वही अपना सूरज है
वही सुबह है
और चेहरों को टटोलकर
विश्वास से दिन की यात्रा करती हूँ


25 मई, 2010

लौटो , लौट आओ


कुछ कदम पीछे लौटो
आगे विनाश है
सब ख़त्म होनेवाला है
...
पीछे मुड़ो
किसी हल्की सी बात पर
घंटों हंसो
तनी नसों को आराम दो

लौटो , लौट आओ
दोष किसी और का नहीं
संभवतः
दोष तुम्हारा भी नहीं
दोष ' और ' की चाह
प्रतिस्पर्धा की दौड़ की है
क्या मिलेगा गुम्बद पे जाकर ?

अभी भी वक़्त है
पीछे मुड़ो
बनावटीपन का चोला उतारकर
माँ के हाथों एक निवाला आशीषों का लो
भाई बहनों संग कोई खेल खेलो
जकड़े दिल दिमाग
अकड़े शरीर से निजात पाओ
आओ....

फिर न कहना
'हमें पुकारा नहीं'

24 मई, 2010

इन्हें आता है







यह तो होना था ...
मैं नहीं रही !
मेरी आँखों , मेरे स्वर
मेरे स्पर्श की गर्माहट से सुरक्षित मेरे बच्चे
शून्य में हैं !

यूँ समझा दिया था सब -
'जब भी यह दिन आए
अपना हौसला मत खोना
जैसे अब तक मेरे पास
अपनी बात रखते आए हो
तब भी रखना - जब मैं ना रहूँ
यकीन रखना
मैं सब सुनूंगी अपनी दुआओं के साथ
सारी ख्वाहिशों को रूप देती रहूंगी ...'

अभी अचानक मेरा सो जाना
उन्हें हतप्रभ, हताश कर गया है !
जल्द ही
वे मेरे शब्दों के विश्वास की रास थाम लेंगे
बचपन से
इसी रास पर तो ऐतबार किया है !

कोई है?
इनके नाम जो मैंने शुभकामनाओं
और रक्षामंत्रों की असली थाती जमा की है
वह इनके हाथ, इनके मस्तिष्क
इनके मन में रख दो
और बस....

फिर इनका स्वाभिमान , इनका आत्मविश्वास
इनके साथ होगा
आंसू पोछकर
एक दूसरे की हथेली मजबूती से पकड़ना
इन्हें आता है
राहों को मोड़ना
इन्हें आता है
सबकुछ सहकर चलना
इन्हें आता है ...

16 मई, 2010

इस बार नज़र नहीं लगने दूंगी !



कितनी छोटी सी लड़ाई थी
पर हमारे चेहरे गुब्बारे हो गए थे
- महीनों के लिए !
जिद उस उम्र की
इगो का प्रश्न था
हार कौन माने !
पर उम्र का ही तकाजा था
या फिर ख़्वाबों का ...
हम हारे तो साथ साथ !
जाने कब इस हार की रुनझुन ने
कानों में धीरे से कहा - 'इसे प्यार कहते हैं'
.....
हम समझ पाते
सपनों में हकीकत के रंग भर पाते
तब तक...
आकाश काले मेघों सा स्याह हो गया
दिशाएं फूट फूटकर रोयीं
और प्यार के पन्ने खो गए !

बहुत ढूंढा उन पन्नों को
जिस पर हमने अपनी हथेलियों के
मासूम चित्र उकेरे थे
कुछ गीत गुनगुनाये थे
एक दूसरे की आँखों की ख्वाहिशें चित्रित की थीं

भटकन इतनी बढ़ी कि
मन विरक्त हो चला
लोगों के चेहरे उबाने लगे
और ...........

तभी हवा कानों में कह गई
'मैं हूँ' .... ये तुम थे
और देखते - देखते मेरे सारे खोये सपने
मुझसे खेलने लगे
और गुरुर से भरे अपने चेहरे को
मैंने छुपा लिया
--- इस बार किसी की नज़र नहीं लगने दूंगी !

12 मई, 2010

उसके लिए ...


मिट्टी के चूल्हे पर
शर्मीली आँखों का तवा रख
ख़्वाबों की रोटियाँ सेंक ली है
लरज़ते ख्यालों की सब्जी में
प्यार का तड़का लगाया है
उसके आने की खुशबू
हवाओं में फैली है
इंतज़ार की अवधि को
जायकेदार नमक के साथ
कुरमुरा बनाया है
मनुहार की चाशनी
उसे रोक ही लेगी ...

05 मई, 2010

समर्पण !


समर्पण .... कैसा?
किसको?
समर्पण का आधार
कभी भी शरीर नहीं होता
शरीर !
तो कोई भी पा लेता है
आत्मा !
- अमर है
समर्पण का स्रोत है
गंगा वहाँ से निकलती है
...
गंगा में नहाना
और गंगा को समझना
- दो अलग बातें हैं ...

गंगा में नहाकर
ना तुम पवित्र होते हो
ना गंगा मैली होती है
... मृत , तुक्ष शरीर को लेकर
तुम्हारी संतुष्टि
क्षणिक है,
वहम है

आत्मा का समर्पण
रेगिस्तान में भी
रिमझिम बारिश का एहसास देता है
जो इस बारिश से अनभिज्ञ रहा
वहाँ कैसा समर्पण?

04 मई, 2010

दर्द का सत्य


अगर तुम दर्द के रास्तों को नहीं पहचानते
तो ज़िन्दगी तुमसे मिलेगी ही नहीं
दर्द के हाईवे से ही
ज़िन्दगी तक पहुंचा जाता है ..
रास्ते में सत्य का टोल नहीं दिया
तो आगे बढ़ना मुमकिन नहीं
जिन क़दमों को
तुम आगे बढ़ जाना समझते हो
वह तो फिसलन है
कोई सुकून नहीं वहाँ !
सत्य ही ज़िन्दगी देता है
दर्द ही रिश्ते देता है ...
तो बंधु ,
जब आंसुओं से आगे का दृश्य धुंधला हो जाये
तो सुकून की सांसें लो
पल भर की दूरी पर
ज़िन्दगी गुलमर्ग सी खडी मिलेगी
और कुछ रिश्ते
- जो मजबूती से तुम्हारे साथ होंगे !

03 मई, 2010

ऐसा क्यूँ?


कई लोग के ब्लॉग खुलते नहीं, जब भी खोलती हूँ warning आता है, जिसमें फिलहाल राज भाटिया जी, वंदना जी(आज ऐसा शुरू हुआ) और कुछ और परिचित ब्लॉग हैं...ऐसा क्यूँ?

30 अप्रैल, 2010

सुवासित वक़्त







पतझड़ में गिरे शब्द
फिर से उग आए हैं
पूरे दरख़्त भर जायेंगे
फिर मैं लिखूंगी

पतझड़ और बसंत
शब्दों के
तो आते-जाते ही रहते हैं

जब सबकुछ वीरान होता है
तो सोच भी वीरान हो जाती है
सिसकियों के बीच बहते आंसुओं से
कोंपले कब फूट पड़ती हैं
पता भी नहीं चलता

मन की दरख्तों से
फिर कोई कहता है
कुछ लिखो
कुछ बुनो
ताकि गए पंछी लौट आएँ
घोंसला फिर बना लें
शब्दों के आदान-प्रदान के कलरव से
खाली वक़्त सुवासित हो जाये

27 अप्रैल, 2010

अनंत विस्तार


तेरी आँखों के सोनताल में
नज़्मों का उबटन लगा
मैं नहाती हूँ
शब्दों का मनमोहक परिधान
मुझे तुम्हारी नज़्म में ज़िन्दगी देता है
इस आबेहयात का रंग
मुझे अनंत विस्तार देता है

21 अप्रैल, 2010

गर्मी है !!!



उफ़ ये गर्मी !
शब्द भी बीमार हो गए हैं
डिहाईडरेशन के शिकार हो गए हैं
सर उठाते तो हैं
पर निढाल लुढ़क जाते हैं ...

एलेक्ट्रोल पिलाया है
दही सफगोल भी दिया है
निम्बू पानी तो भरपूर
फिर भी आँखें थोड़ी खुली
थोड़ी बन्द सी हैं शब्दों की

तीमारदारी ज़रूरी है
वरना बातों का क्रम रुक जायेगा
गलतफहमियां लू की तरह झुलसाने लगेंगी
और गर्मी के मारे हम अजनबी हो जायेंगे

कच्चे आम ले आई हूँ
इसे भी आजमाना है
शब्दों को बचाना है
कुछ कहना है और सुनना है ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...