28 फ़रवरी, 2014

मृत्यु के बाद



जन्म के बाद मृत्यु
तो निःसंदेह मृत्यु के बाद जन्म
कब कहाँ जन्म
और कहाँ मृत्यु
सबकुछ अनिश्चित   … !
कल्पना का अनंत छोर
जीने का प्रबल संबल देता है
साथ ही
मृत्यु की भी चाह देता है
चाह निश्चित हो सकती है
हो भी जाती है
पर परिणाम सर्वथा अनिश्चित
!!!
प्रयास के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं !!!
……………………
चलो एक प्रयास हम कल्पना से परे करें
मृत्यु के बाद का सत्य जानें
यज्ञ करें
विज्ञान की ऊँगली थाम आविष्कार करें
मृत शरीर की गई साँसों की दिशा लक्ष्य करें
सूक्ष्म ध्वनिभेद पर केन्द्रित कर सर्वांग को
…आत्मा में ध्यान की अग्नि जला
असत्य की आहुति दे
उस सूक्ष्मता को उजागर करें
…।
पाप-पुण्य की रेखा से परे
ईश्वरीय रहस्य को जाग्रत करना होगा
एक युग
एक महाकाव्य
एक महाग्रंथ का निर्माण करना होगा
जन्म-मृत्यु
इन दोनों किनारों को आमने-सामने करना होगा
संगम में मुक्ति है
तो उसी संगम में ढूंढना होगा
प्रेम का तर्पण
त्याग का तर्पण
मोह का तर्पण
प्रतिस्पर्धा का तर्पण
कुछ यूँ करना होगा
मृत्यु के पार सशरीर जाकर
आत्मा से रूबरू होना होगा -

22 फ़रवरी, 2014

कहानी कुछ और होगी सत्य कुछ और



मैं भीष्म
वाणों की शय्या पर
अपने इच्छित मृत्यु वरदान के साथ
कुरुक्षेत्र का परिणाम देख रहा हूँ
या  ....... !
अपनी प्रतिज्ञा से बने कुरुक्षेत्र की
विवेचना कर रहा हूँ ?!?

एक तरफ पिता शांतनु के दैहिक प्रेम की आकुलता
और दूसरी तरफ मैं
.... क्या सत्यवती के पिता के आगे मेरी प्रतिज्ञा
मात्र मेरा कर्तव्य था ?
या - पिता की चाह के आगे
एक आवेशित विरोध !

अन्यथा,
ऐसा नहीं था
कि मेरे मन के सपने
निर्मूल हो गए थे
या मेरे भीतर का प्रेम
पाषाण हो गया था !
किंचित आवेश ही कह सकता हूँ
क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञा शांत तट से नहीं ली जाती !!
वो तो मेरी माँ का पावन स्पर्श था
जो मैं निष्ठापूर्वक निभा सका ब्रह्मचर्य
.... और इच्छितमृत्यु
मेरे पिता का दिया वरदान
जो आज मेरे सत्य की विवेचना कर रहा है !

कुरुक्षेत्र की धरती पर
वाणों की शय्या मेरी प्रतिज्ञा का प्राप्य था
तिल तिलकर मरना मेरी नियति
क्योंकि सिर्फ एक क्षण में मैंने
हस्तिनापुर का सम्पूर्ण भाग्य बदल दिया
तथाकथित कुरु वंश
तथाकथित पांडव सेना
सबकुछ मेरे द्वारा निर्मित प्रारब्ध था !

जब प्रारब्ध ही प्रतिकूल हो
तो अनुकूलता की शांति कहाँ सम्भव है !

कर्ण का सत्य
ब्रह्मुहूर्त सा उसका तेज  …
कुछ भी तो मुझसे छुपा नहीं था
आखिर क्यूँ मैंने उसे अंक में नहीं लिया !
दुर्योधन की ढीढता
मैं अवगत था
उसे कठोरता से समझा सकता था
पर मैं हस्तिनापुर को देखते हुए भी
कहीं न कहीं धृतराष्ट्र सा हो गया था !
कुंती को मैं समझा सकता था
उसको अपनी प्रतिज्ञा सा सम्बल दे
कर्ण की जगह बना सकता था
पर !!!
वो तो भला हो दुर्योधन का
जो अपने हठ की जीत में
उसने कर्ण को अंग देश का राजा बनाया
जो बड़े नहीं कर सके
अपनी अपनी प्रतिष्ठा में रहे
उसे उसने एक क्षण में कर दिखाया !

द्रौपदी की रक्षा
मेरा कर्तव्य था
भीष्म प्रतिज्ञा के बाद
अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को मैं बलात् ला सकता था
तो क्या भरी सभा में
अपने रिश्ते की गरिमा में चीख नहीं सकता था !
पर मैं खामोश रहा
और परोक्ष रूप से अपने पिता के कृत्य को
तमाशा बनाता गया !

अर्जुन मेरा प्रिय था
कम से कम उसकी खातिर
मैं द्रौपदी की लाज बचा सकता था
पर अपनी एक प्रतिज्ञा की आड़ में
मैं मूक द्रष्टा बन गया !
मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है
कि इस कुरुक्षेत्र की नींव मैंने रखी
और अब -
इसकी समाप्ति की लीला देख रहा हूँ !

कुछ भी शेष नहीं रहना है
अपनी इच्छितमृत्यु के साथ
मैं सबके नाम मृत्यु लिख रहा हूँ
कुछ कुरुक्षेत्र की भूमि पर मर जाएँगे
तो कुछ आत्मग्लानि की अग्नि में राख हो जाएँगे
कहानी कुछ और होगी
सत्य कुछ और - अपनी अपनी परिधि में !

21 फ़रवरी, 2014

इससे खूबसूरत पश्चाताप और कोई नहीं …



कहीं कुछ मेरे स्वभाव के विपरीत हुआ
मैंने ओढ़ ली चुप्पी की चादर
जबकि मुझे बोलना था
… मेरा मन बोल भी रहा था
बोलता ही है- समय-असमय
मैं सुनती रहती हूँ !!!
किसी स्पष्टीकरण की ज़रूरत भी नहीं
क्योंकि अपने सच के एक एक धागे को
मैं बखूबी पहचानती हूँ
कोई और समझेगा क्या ?
इतनी खुली समझ होती
तो दोराहे,तिराहे,चौराहे
आपस में उलझते नहीं !
जब दिशा ज्ञान ही भ्रमित हो उठा
तो शिकायत कैसी ?
किससे ?
कुछ नया तो हुआ नहीं है
जो शोर किया जाए !
ऊँगली उठाने का कोई अर्थ नहीं
अपने मन के धरातल को बखूबी देखना ज़रूरी है
कहाँ थी समतल भावनाएँ
कहाँ छोड़ दी गई काई
कहाँ रखे थे बातों के कंकड़
खुद का मुआयना कर लें
कुछ परिवर्तन ले आएँ
इससे खूबसूरत पश्चाताप और कोई नहीं  …
परिवर्तन का सूत्र उठाए
खड़ी हूँ रेगिस्तान में
धूल का बवंडर उठता है
तो रास्ते दुविधा में डाल देते हैं
कहाँ से चले थे
कहाँ जाना है - सब गडमड हो जाता है
पर मुझे पहुँचना तो है न तुम तक
 बाधाएँ कितनी भी हों
…… मुझे पहुँचना है उस मोड़ पर
जहाँ से अपने से एहसास की खुशबू आती है
....
मुझे खुद पर यकीन है
यकीन है कि मैं पछतावे की अग्नि शांत कर लूँगी
तुम्हारे चेहरे पर एक गाढ़ी मुस्कान दे जाऊँगी
तुम्हें भी यकीन है न ?-

17 फ़रवरी, 2014

शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो





शब्द नुकीले शीशे से भी होते हैं
फिर
लहुलुहान घटनाओं का ज़िक्र
शीशे से क्यूँ ? !

होना था जो हादसा
वह तो हो गया
जिसे जाना था
वह चला भी गया
अब उसका वर्णन
वह भी शीशे जैसे शब्दों से
घाव को भरने की बजाय
खुरचने की प्रक्रिया है !
वर्षों तक  …
ज़ख्म भरते नहीं
नहीं जागता कोई हौसला
बस भयावह दृश्य ही रह-रहकर डराते हैं !

न्याय के लिए चीखो
'कैंडल मार्च' करो
आवाज़ों का आह्वान करो
पर निर्वस्त्र दृश्यों की चर्चा कर
उनके घर की नींव मत हिलाओ
जहाँ यह हादसा हुआ है
मत छीनो मासूम आँखों के सपने !

टायर जलाने से
किसी निर्दोष के रास्ते ही धुएँ से भरते हैं
जलाना ही चाहते हो
तो उस घर को जलाओ
जहाँ से घृणित जघन्य कार्य को अंजाम दिया गया
जिस कुर्सी से अन्यायी फैसला हुआ
व्यर्थ में उन्हें क्यूँ असुरक्षित करना
जिनके घर के आगे उनके माता-पिता
प्रतीक्षित चहलकदमी करते रहते हैं !

तुम साथ हो
यह जताने को
कोमल शब्दों का स्पर्श दो
दूर से वो आगाज़' करो
कि मन में विश्वास उत्पन्न हो
भय से निस्तेज आँखों में
प्राणसंचारित करते सपने भर जाएँ
शब्दों का अनमोल अर्घ्य दो
शूल नहीं !!!

04 फ़रवरी, 2014

शाश्वत निशाँ




मैं प्यार करती हूँ
हाँ हाँ तुमसे
शरीर की परिधि से परे
गहरे
मन की प्रत्यंचा पर
साधती हूँ अपने सपने
…… लक्ष्य - प्रेम
यानि तुम
और भर उठता है प्रेम उद्यान
ख्याल,विश्वास की गरिमा से  !
प्रेम उद्यान में शरीर एक नश्वर भाग है
जिसमें मन की साँसों से
प्राण-संचार होता है
तो यह मन करता है प्यार
देखता है निर्विघ्न -
तुम्हारी आँखों में
आँखों की सीढ़ियाँ उतर
तुम्हारे मन की दीवारों पर लिखे अपने ही नाम को
छूता है हौले से
डर तो लगता है न
कि कहीं मिट न जाए
……
मन तुम्हारे मन की ऊँगली थाम
भीड़ की आँखों से अदृश्य
अपने और तुम्हारे मन की पवित्र प्रतिमा की
करता है परिक्रमा
आँखों से निःसृत होती है शंख ध्वनि
हौले से जो मैं कहती हूँ
तुम कहते हो
मैं सुनती हूँ
तुम सुनते हो
वह मंत्र सदृश्य सत्य शिव सा सुन्दर होता है
प्रेम अश्रु बन जाता है प्रसाद
और साथ साथ चलते
बनते हैं शाश्वत निशाँ
हमारे  … 

01 फ़रवरी, 2014

एक और दिन जी जाने की मुहर




दरवाजे रोज खोलती हूँ
फिर भी जंग लगे हैं
शायद - इसलिए कि -
मन के दरवाजे नहीं खुलते !!!
तभी, अक्सर
ताज़ी हवाओं का कृत्रिम एहसास होता है
दम घुटता है
कुछ खोने की प्रक्रिया में !
कुछ खोना नहीं चाहता मन
पर इकतरफा पकड़ भी तो नहीं सकता
और  … मैं
प्रत्याशा की भोर में
खोलती हूँ सारे दरवाजे
बहुत शोर होता है
पंछी उड़ जाते हैं भयाक्रांत
मन की हथेली पर रखे दाने
रखे ही रह जाते हैं
.... सोचती हूँ,
बंद रहना,जंग खाना
अपनी विवशता का परिणाम है
या इनके हिस्से की नियति है यह !
वजह जो भी हो,
मैं हर दिन उम्मीदों की तलाश लिए
सोच की धुंध से लड़ती हूँ
ठंड लगने लगती है
शरीर अकड़ जाता है
मन कुम्हला जाता है
पर - मैं हार नहीं मानती !
बचपन से अब तक
आशाओं की चादर बड़ी घनी बुनी है
सिलाई उधड़े
- सवाल ही नहीं उठता !
जानती हूँ
मानती हूँ
रिश्ते बेरंग हों
तो उनको कोई शक्ल देना
बहुत मुश्किल है
अपनी जद्दोजहद से अलग
अपनों के सवालों की जद्दोजहद से भी गुजरना पड़ता है
बार-बार कटघरे में
एक ही जवाब देते-देते ऊब जाता है मन
साँचे में भी रखा रिश्ता
आकारहीन, बेशक्ल हो जाता है
और -
फिर,
अपना ही घर अजायबघर लगता है
चरमराते खुलते दरवाजे की आवाज से
माथे पर पसीना छलछला उठता है
....
कई बार सोचता है मन
कि आज धूप से कट्टी कर लूँ
पर - सुबह,दिन,शाम,रात से परे
जिंदगी खिसकती नहीं
उलझन ही सही -
वो भी ज़रूरी है
एक और दिन जीने के लिए
जी जाने की मुहर लगाने के लिए !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...