इमरोज़ प्यार का वह सांचा थे, जिसके लिए न जाने कितने अध्याय लिखे गए । पर क्या कोई अपने बच्चे का इमरोज़ होना बर्दाश्त कर पाएगा ?!
मेरी नज़र में इमरोज़ जंगल में खिले फूल की तरह थे, जो गर्मी में झुलसा, पर देखनेवालों ने उनको ऋतुराज वसंत की तरह लिया । मेरे मन में कुछ गीत तैरते हैं -
कोई भी तेरी, राह न देखे
नैन बिछाये ना कोई
दर्द से तेरे, कोई न तड़पा
आँख किसी की ना रोयी
कहे किसको तू मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ ...
तूने तो कहा नहीं दिल का फ़साना
फिर भी है कुछ बुझा बुझा
सारा ज़माना
जिसका कल गुमां न था
आज उसी का यकीन है
तेरा है जहाँ सारा
अपना मगर कोई नहीं है ...
पहले भी यह बेचैनी हुई, अब भी हो रही है । क्या कहूं इमरोज़ ?
मेरी दीदी नीलम प्रभा ने मुझसे कहा, मुम्बई स्थित कांदिवली में ही संस्कार है, चली जाओ... तबीयत का उतार चढ़ाव तो अपनी जगह है ही, लेकिन मैं उस जगह मन ही मन बेचैन होकर भी तुम्हारे साथ आंतरिक बहस में उलझ जाती और तुम हमेशा की तरह इतना ही कहते - रश्मि, तुम कैसे यह सब सोच लेती हो, पर सच कहूं, अच्छा लगता है ।
रुको इमरोज़, मैं तुम्हारी पीठ से साहिर का नाम खुरच देती हूँ और तुम्हारे मन को लिख देती हूँ - अमृता इमरोज़ ।
रश्मि प्रभा
ख्याल रखियेगा अपना |
जवाब देंहटाएंमन.स्पर्श करती पंक्तियाँ अनकहे भाव महसूस करवा रहीं दी।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २६ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हृदय को भीतर तक स्पर्श कर गई...।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुकून देती बात
जवाब देंहटाएंलाजवाब ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन
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