30 दिसंबर, 2014

किंकर्तव्यविमूढ़ मैं






तबके अलग अलग होते हैं 
यूँ कहो 
बना दिए जाते हैं  … 
कामवाली बाई -
नाम जानकर क्या होगा ?
यह एक दृश्य है स्थितिजन्य  
एक सा - झोपड़पट्टी और ऊँचे घरों का 
कमला,विमला, … जो कह लो  … 
नीचे रो रही है 
घुटने फूटे हुए हैं 
पूछने पर कहती है 
पानी भरने में गिर गई 
आगे बढ़ती हूँ तो दूसरी बाई पूछती है 
क्या कहा उसने ?
… गिर जाने से घुटने फुट गए हैं "
हम्म्म 
गिरेगी ही !
पति छोड़ गया 
एक बेटा है 
ढंग से रहना चाहिए 
तो दोस्ती यारी में लगी है !
इसकी माँ कहती है, शादी कर लो,
तो कहती है - बेटे को वह नहीं देखेगा 
दीदी जी,
बेटे को देखने के लिए बहुत लोग हैं 
पर नहीं  … 
यूँ ही हीहीही करती रहेगी 
सलवार सूट पहनेगी 
.... 
किंकर्तव्यविमूढ़ मैं सुन रही हूँ 
सोच रही हूँ,
सहजता से कुछ भी कह देना 
इलज़ाम लगाना 
कितना आसान होता है 
ऐसे दुरूह रास्तों पर 
गुमराह न होकर भी लोग गुमराह हो जाते हैं !
सही-गलत की परिभाषा 
बड़ी विचित्र है 
एक ही कैनवस में 
एक सी ज़िन्दगी फिट नहीं होती !
बनाये हुए तबके का फर्क जो हो 
कोई सड़क पर गाली देता है 
कोई फाइव स्टार में अश्लीलता पर उत्तर आता है 
अलग अलग चेहरा है 
अलग अलग भाषा 
अलग अलग निष्कर्ष  … 
मुझे उस बाई से हमदर्दी है 
पर कह नहीं सकती 
क्यूँ ?
रहने दो,
मेरे कुछ कहने से क्या होगा 
अपने अपने मन से जवाब मिल ही जायेगा !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...