13 मार्च, 2016

सुनी है ?




सुनी है अपनी पदचाप
जो तुम्हें छूने को
रोक लेने को
पीछे पीछे आती है ?
रख देती है कोई भुला-बिसरा स्पर्श
तुम्हारे कंधों पर
सहला देती है माथे को
और होठ हिल जाते हैं - कौन !
सुनी है कोई खोई हुई पुकार ?
जिसे सुनकर एक चिर परिचित मुस्कान
तुम्हारे चेहरे पर खिल उठती है
सारी थकान भूलकर
यादों का सबसे बड़ा बक्सा
अपनी बातों में खोलकर तुम बैठ जाते हो
धागे कुछ मनुहार के
कुछ रुठने के
कुछ बेबाक हँसी के
कुछ रोने के
कुछ झगड़ने के
बिखेर देते हो अपने इर्द गिर्द
बर्फ के रुपहले फाहों जैसे …
देखा है अचानक कोई अनजाना चेहरा
बरसों से जाना-पहचाना सा
जिसे देखते कोई अपना
बिजली की तरह
तुम्हारी आँखों के आगे कौंध जाता है
आगे बढ़ते क़दमों को रोककर
तुम देखते हो पीछे
और स्वतः बुदबुदाते हो
"थोड़ी देर को लगा कि …"
यह ज़िन्दगी इसी धुरी पर चलती है
कभी तुम चलते हो
कभी हम …

01 मार्च, 2016

जिजीविषा का सिंचन जारी है .......




अपनी उम्र मुझे मालूम है
मालूम है
कि जीवन की संध्या और रात के मध्य कम दूरी है
लेकिन मेरी इच्छा की उम्र आज भी वही है
अर्जुन और कर्ण
सारथि श्री कृष्ण बनने की क्षमता आज भी पूर्ववत है
हनुमान की तरह मैं भी सूरज को एक बार निगलना चाहती हूँ
खाइयों को समंदर की तरह लाँघना चाहती हूँ
माथे पर उभरे स्वेद कणों की
अलग अलग व्याख्या करना चाहती हूँ

आकाश को छू लेने की ख्वाहिश लिए
आज भी मैं शून्य में सीढ़ियाँ लगाती हूँ
नन्हीं चींटी का मनोबल लेकर
एक बार नहीं सौ बार सीढ़ियाँ चढ़ी हूँ
गिरने पर आँख भरी तो है
पर सर पर कोई हाथ रख दे
इस चाह से उबरी मैं
गिरकर उठना सीख गई हूँ  ... !

शून्य अपना
सीढ़ियाँ अपनी
चाह अपनी
कई बार आसमान ही नीचे छलांग लगा लेता है
सूरज मेरी हथेलियों में दुबककर
थोड़ा शीतल हो जाता है !
सच है
दर्द और ख्वाहिश सिर्फ धरती की नहीं
आकाश की भी होती है
मिलने का प्रयोजन दोनों ही
किसी न किसी माध्यम से करते हैं
...
मैं कभी धरती से गुफ्तगू करती हूँ
कभी आसमान को सीने से लगा लेती हूँ
किसी तार्किक प्रश्न से कोई फायदा नहीं
उन्हें भी समझाती हूँ।
व्यक्ति कभी कोई उत्तर नहीं देता
समय देता है
कभी आस्तिक होकर
कभी नास्तिक होकर
...
मुझे सारे उत्तर समय असमय मिले
माध्यम कभी अहिंसक मनोवृति रही
कभी हिंसक
अति निकृष्ट काया भी दाँत पीसते
भयानक रस निचोड़ते
दर्दनाक अट्टहासों के मध्य
गूढ़ रहस्य का पता दे गई
वाद्य यंत्रों के मधुर तानों के साथ
किसी ने रास्तों को बंद कर दिया
श्वेत बालों ने
चेहरे पर उग आई पगडंडियों ने
पटाक्षेप का इशारा किया
लेकिन,
मेरी चाह है बहुत कुछ बनने की
जिनी, अलादीन,सिंड्रेला,लालपरी
...
बुद्ध,यशोधरा
अर्जुन,कर्ण
एकलव्य  ... और सारथि कृष्ण
कुछ अद्भुत
कुछ रहस्यात्मक करने की चाह
मेरे सम्पूर्ण शरीर में टहनियों की तरह फैली है
अबूझ भावनाओं के फल-फूलों से लदी हुई ये टहनियाँ
संजीवनी हैं - मेरे लिए भी
और देखे-अनदेखे चेहरों के लिए भी

जिजीविषा का सिंचन जारी है   .......... 

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...