पहले पूरे घर में
ढेर सारे कैलेंडर टँगे होते थे ।
भगवान जी के बड़े बड़े कैलेंडर,
हीरो हीरोइन के,
प्राकृतिक दृश्य वाले, ...
साइड टेबल पर छोटा सा कैलेंडर
रईसी रहन सहन की तरह
गिने चुने घरों में ही होते थे
फ्रिज और रेडियोग्राम की तरह !
तब कैलेंडर मांग भी लिए जाते थे,
नहीं मिलते तो ...चुरा भी लिए जाते थे
अब बहुत कम कैलेंडर देखने को मिलते हैं,
नहीं के बराबर ।
नए साल की डायरी का भी एक खास नशा था !
कुछ लिखते हुए
एक अलग सी दुनिया का एहसास होता,
दूसरे की डायरी चुराकर पढ़ने की
कोशिश होती,
फिर बिना कुछ सोचे समझे
उसकी व्याख्या होती
लिखनेवाले को आड़े हाथ लिया जाता ।
ऐसी स्थिति में,
लिखनेवाला भी लिखने से पहले
सौ बार नहीं,
तो दस बार जरूर सोचता
और छुपाने के लिए
ड्राइंग रूम के सोफे का गद्दा,
पलंग के गद्दे के बीच की जगह,
आलमारी के पीछे की जगह ढूंढी जाती
...चलो भाई, ज़रा रिवाइंड होकर टहलते हैं
कम से कम वहाँ तक
जहाँ हम जीभ दिखाकर
जीत जाते थे,
ठेंगा दिखाकर
भड़ास बची रही तो
दांत से हथेली या कलाई काट लेते थे
फिर भी दोस्त बने रहते थे
बीते शाम की कट्टिस
अगली शाम तक दोस्ती में बदल जाती थी तो क्यों न फिर से
कुछ कैलेंडर खरीदे जाएं
कुछ डायरियों को ज़िन्दगी दी जाए
बचपन के दिनों को
एक बार फिर
दोहराया जाए
खुशियों के घाट पर
छपक छइया खेला जाए
चलो ना !
ये जो ख्वाहिश जागी है
क्या पता,
कल फिर जगे ना जगे !