जब भी कहीं से गुजरा हूँ
या गुजरी हूँ
एक फुसफुसाहट ने
विद्युत गति से,
मेरा पीछा किया है
"टूटे घर से है" ...
टूटा घर !
क्या सच में टूटा हुआ घर वो है,
जिसमें माता पिता अलग हो जाते हैं
या वह घर है,
जिसमें बच्चों की दुहाई देते
माता पिता रात दिन चीखते-चिल्लाते हैं !
न जमीन अपनी लगती है
न आकाश
नाम से ही डर लगता है
और सही-गलत माता पिता से
अव्यक्त चिढ़ होती है ।
अलग हो जाने के बाद
निर्भर करता है
कि हम ख्याल करनेवाले के साथ हैं
या फिर अहम की जीत के साथ !
अहम के आगे
न टूटने के मायने रह जाते हैं
ना जुड़ाव का अर्थ
रह जाता है एक एकाकीपन
धुंध भरे रास्ते
छिले हुए घुटने और मन ...
ख्यालों की उंगली मिल जाये
तो बहुत छोटा घर ही मिले,
अपना लगता है ।
जिसके हिस्से
हर तरफ खुला आकाश होता है
पंख फैलाकर उड़ने का साहस
सपने देखने का हौसला ...
वह बिल्कुल टूटा घर नहीं होता,
कम ही रिश्ते मिलें,
पर खरे रिश्ते मिलें
एक सही तिनका मिल जाए
तो अथाह सागर के बीच भी
द्वीपों की राहत हिस्से आ ही जाती है ।
फिर भी लोग !!!
अपनी मर्ज़ी से मान लेते हैं,
कहते हैं - टूटा घर
और एक पूरे घर के वहम में
नफरत भरी जिंदगी जीते हैं
और सोचते हैं
कि बच्चों के लिए
उन्होंने कितना बड़ा त्याग किया है ।
यह त्याग व्याग बड़ी हास्यास्पद बात है
बेहतर है टूटे घर से कहलाना,
...... गर्दिश के मज़े और ही होते हैं
सबके नसीब में नहीं लिखता मालिक !
और सोच के देखो,
ढाई लाख के डाइनिंग टेबल पर
जुड़ी हुई भवों के साथ
छप्पन भोग निगलने से
क्या लाख बेहतर नहीं है
खुले आसमान के चंदोवे तले
हंसी के गुड़ के साथ सूखी रोटी खाना ?
वैसे उतार चढ़ाव के बगैर
ना कोई ज़िन्दगी होती है
ना कोई घर
ना ही कोई रिश्ते ... ।