24 दिसंबर, 2021

एक स्त्री


 


एक स्त्री हर रोज बिछावन ठीक करते हुए किसी दिन आलस में आती है, सोचती है - आज रहने देती हूँ सबकुछ बिखरा बिखरा ही, पर उसे ही लगने लगता है कि कोई आया या नहीं भी आया तो बेतरतीब कमरे में मन भी बेतरतीब हो जाएगा और सोचते हुए वह तह कर देती है रजाई,कम्बल,इत्यादि चादर पर पड़ी सिलवटों को सीधा कर देती है तकिये को हिला डुलाकर ज़िंदा कर देती है फिर रसोई में जाती है । रसोई में नज़रें दौड़ाते हुए अपनी थकान महसूस करते हुए वह सोचती है ऐसा क्या बनाऊं, जो जल्दी हो जाये, स्वाद भी हो, टिफ़िन नाश्ता सब हो जाये ! एक ख्याल गले लिपटता है, आज रहने देती हूँ... और तभी दूसरा ख्याल झकझोरता है बाहर से कुछ ढंग का मिलता नहीं, और और और के बीच कुकर की सीटी बज उठती है सब्जी,पराठे,पूरी,टोस्ट . . . खिलखिलाने,इतराने लगते हैं और एक स्त्री की थकान कम हो जाती है । ऐसी जाने कितनी दिनचर्या वह निभाती है इस निभाने में चुटकी भर खुद को भी जी लेती है कुछ लिख लेती है, पढ़ लेती है, टीवी देख लेती है, अपनों के संग ठहाके लगा लेती है ... ऐसी स्त्री किसी दिन कमरे की बेतरतीबी में चुप बैठी मिले, रसोई से कोई खुशबू न आये, चूल्हा ठंडा रहे, धूप के लिए पर्दा न हटे, ..... तब समझना, समझने की कोशिश करना कि वह थकी नहीं है, बीमार है - शरीर या मन से ! ऐसे में यह मत कहना, "क्या ? आज कुछ बनेगा नहीं ? सब बिखरा बिखरा है, समय देखा ?" बल्कि कंधे पर हाथ रखकर स्नेह से पूछना, "क्या बात है क्या हुआ?" मुमकिन है, वह उमड़ पड़े या एक स्पर्श से स्वस्थ हो जाये, खुद में खिली खिली धूप बन जाये ... स्त्री जिस रिश्ते में हो, उसकी पहचान को पहचानो, अर्थ दो, उसे मशीन मत मान लो या उसके करते जाने की क्षमता के आगे मुँह बिचकाकर यह मत कहो, "कह देती तो हम कर लेते . . ." ... तुम्हें तो कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती न ?

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...