मेरे तुम,
जाने अनजाने प्रेम परिधान में
मैंने तुमसे कहा _
मैं सीता की तरह
तुम्हारी अनुगामिनी बनकर रहूंगी...
और तुम राम बन गए !!!
एक अग्नि परीक्षा की कौन कहे,
_ निरंतर अंगारों पर चली ।
कलयुग रहा,
तो वाल्मीकि का मिलना भी संभव नहीं हुआ !
मेरे तुम,
तुम्हारे शब्दों के माधुर्य में सुधबुध होकर
मैं बरसाने की राधा सी क्या हुई
तुम कृष्ण बन गए !!
अब कथा क्या कहूं ...
मैं तो प्रतिक्षित ही रही !!!
जनकपुर, अयोध्या, चित्रकूट,लंका,...
बरसाने, गोकुल, वृंदावन में भटकती रही !!!
इस भटकाव में तुम एक नाम रहे,
अनाम, बेनाम !
कभी उस 'तुम' से न मेरा मिलना हुआ,
न वह मिला...
मेरे तुम,
मैं जिम्मेदारी बनकर
तुम्हारे हिस्से आई ही नहीं, है
तो मुड़कर देखना भी क्या था !
हां मुझसे मिला जटायु,
मेरा हाल पूछा अशोक वाटिका ने
कदम्ब मेरे आंसुओं से सिंचित होता रहा,
वृंदावन एक छायाचित्र की तरह
मेरे साथ चलता रहा
ऊधो मिले,
सुदामा मिले ...
तुम जो आज तक जीवित हो,
वह इसलिए _
क्योंकि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली
तुम्हारे लक्ष्य के आगे नहीं आई
... चुंकि मैंने प्रेम को मरने नहीं दिया,
इसलिए तुम कहीं भी रहें,
तुम्हारे नाम से पहले मेरा नाम
मेरा वजूद रहा,
और मेरे वजूद ने तुम्हें अमर किया
सीताराम
राधेकृष्ण ...