ओ प्रिय,
जीवन का हर निर्णय
एक युद्ध होता है
- वह जन्म हो,
मरण हो,
विवाह हो,
निभाना हो,
अलगाव हो
... और फिर सहजता की विभीषिका हो !!
युद्ध अठारह दिनों का हो
या बीस, पचास, सौ वर्षों का
... परिणाम मृत्यु तक ही सीमित नहीं होते,
सारांश, निष्कर्ष शरीर, मन की शाखाओं पर भी
प्रभाव डालते हैं ।
कर्मकांड कोई भी हो,
मुक्ति नहीं मिलती !!!
तो हल क्या है ?
खुद को मांजना,
तराशना,
शोर के आगे अपने मौन को सुनना
- वह दबी हुई सिसकियां ही क्यों न हो !
माना,
कोई कंधे पर, सर पर हाथ रखे,
गले से लगा ले
तो सुकून मिलता है
लेकिन क्षणिक ही न !
युद्ध में अभिमन्यु बनना पड़ता है
अपने हों, पराये हों
- सबके वार से अकेले जूझना होता है
निहत्था होकर भी
अपनी क्षमता पर विश्वास रखना होता है
कर्ण भी हिल जाए,
ऐसा रुप दिखाना पड़ता है ...
निःसंदेह,
धरती तब भी खून से लाल होती है
लेकिन अभिमन्यु युगों की प्रेरणा बनता है
न मुक्त होता है,
न होने देता है !
तो अपनी जीजिविषा का हुंकार करो
शंखनाद करो
खुद को ब्रह्मास्त्र बना लो
मृत्यु भी नतमस्तक होकर तुम्हें वरण करे,
स्वयं को ऐसा आरंभ बना लो...