17 अक्टूबर, 2008

प्रभु तुम और मैं !


कस्तूरी मृग बन मैंने ज़िन्दगी गुजारी
प्रभु तुम तो मेरे अन्दर ही सुवासित रहे !
मैं आरती की थाल लिए
व्यर्थ खड़ी रही
प्रभु तुम तो मेरे सुकून से आह्लादित रहे !
मेरे दुःख के क्षणों में
तुमने सारी दुनिया का भोग अस्वीकार किया,
तुम निराहार मेरी राह बनाने में लगे रहे
और मैं !
भ्रम पालती रही कि -
आख़िर मैंने राह बना ली !
मैं दौड़ लगाती रही,
दीये जलाती रही
- तुम मेरे पैरों की गति में,
बाती बनाती उँगलियों में स्थित रहे !
जब-जब अँधेरा छाया
प्रभु तुम मेरी आंखों में
आस-विश्वास बनकर ढल गए
और नई सुबह की प्रत्याशा लिए
गहरी वेदना में भी
मैं सो गई -
प्रभु लोरी बनकर तुम झंकृत होते रहे !

.............
प्रभु तुमने सुदामा की तरह मुझे अनुग्रहित किया
मुझे मेरे कस्तूरी मन की पहचान दे दी !

12 अक्टूबर, 2008

वक्त है ?


वक्त हो तो बैठो
दिल की बात करूँ....
कुछ नमी हो आंखों में
तो दिल की बात करूँ...
तुम क्या जानो,
अरसा बीता,
दिल की कोई बात नहीं की,
कहाँ से टूटा
कितना टूटा-
किसी को ना बतला पाई,
रिश्तों के संकुचित जाल में
दिल की धड़कनें गुम हो गईं !
पैसों की लम्बी रेस में
सारे चेहरे बदल गए हैं
दिल की कोई जगह नहीं है
एक बेमानी चीज है ये !
पर मैंने हार नहीं मानी है
दिल की खोज अब भी जारी है....
वक्त है गर तो बैठो पास
सुनो धड़कनें दिल की
इसमें धुन है बचपन की
जो थामता है -रिश्तों का दामन
फिर.............
वक्त हो तो बैठो,
दिल की कोई बात करूँ............

06 अक्टूबर, 2008

मन-से-मन तक !!!


शरीर की मानसिकता
मन तक कहाँ जाती है ?
मन के चरागाहों में घूमते
तुम रो पडोगे,
जब साथ चलनेवाला
शरीर से ऊपर नहीं उठ पाता !
तुम मन से गंगा को धरती पर लाओ,
कोई उपलब्धि नहीं............
पर,सिर्फ़ शरीर की परिधि में -
नाम,शोहरत....सब संभव है !
साहित्य कितनों को लुभाता है भला.....?
पर जिन किताबों में
अश्लीलता बेची जाती है,
वह क्षणांश में
हाथों-हाथ बिक जाती है !
दोष लिखनेवालों का कहाँ होता है,
वे तो मानसिकता को खुराक देते हैं !
शरीर मन का दूसरा पहलु है
इसे कम लोग जानते हैं
और यही जानकारी उन्हें रुलाती है !
मैं अक्सर उन आंसुओं को
करीने से सजाती हूँ
और मन-से-मन की उड़ान भरती हूँ !

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...