कभी-कभी
मैं प्रोज्ज्वलित तेज़ होती हूँ,
कभी
सारी पृथ्वी,
डगमगाती नज़र आती है,
कभी हौसला मेरी मुठ्ठी में होता है,
कभी कमज़ोर आंसू थमते नहीं...........
मैं ही सच होती हूँ,
मैं ही झूठ !
मैं ही अनंत,
मैं ही शून्य.....
क्या यह सबके साथ होता है?
क्या डर और हौसला साथ चलते हैं?
क्या सच की दीवार में ,
झूठ की मिलावट ज़रूरी है?
क्या यही सामान्य स्थिति है?
.... इन प्रश्नों के भंवर में,
सारा दिन गुजरता है....
मैं ही प्रश्न बनती हूँ,
मैं ही उत्तर.....
मैं ही वक्ता,
मैं ही श्रोता ,
मैं ही द्रष्टा....................
सच कहना -
तुम्हारे साथ भी
ऐसा होता है न ?
मैं प्रोज्ज्वलित तेज़ होती हूँ,
कभी
सारी पृथ्वी,
डगमगाती नज़र आती है,
कभी हौसला मेरी मुठ्ठी में होता है,
कभी कमज़ोर आंसू थमते नहीं...........
मैं ही सच होती हूँ,
मैं ही झूठ !
मैं ही अनंत,
मैं ही शून्य.....
क्या यह सबके साथ होता है?
क्या डर और हौसला साथ चलते हैं?
क्या सच की दीवार में ,
झूठ की मिलावट ज़रूरी है?
क्या यही सामान्य स्थिति है?
.... इन प्रश्नों के भंवर में,
सारा दिन गुजरता है....
मैं ही प्रश्न बनती हूँ,
मैं ही उत्तर.....
मैं ही वक्ता,
मैं ही श्रोता ,
मैं ही द्रष्टा....................
सच कहना -
तुम्हारे साथ भी
ऐसा होता है न ?