27 फ़रवरी, 2009

होता है न ?


कभी-कभी
मैं प्रोज्ज्वलित तेज़ होती हूँ,
कभी
सारी पृथ्वी,
डगमगाती नज़र आती है,
कभी हौसला मेरी मुठ्ठी में होता है,
कभी कमज़ोर आंसू थमते नहीं...........
मैं ही सच होती हूँ,
मैं ही झूठ !
मैं ही अनंत,
मैं ही शून्य.....
क्या यह सबके साथ होता है?
क्या डर और हौसला साथ चलते हैं?
क्या सच की दीवार में ,
झूठ की मिलावट ज़रूरी है?
क्या यही सामान्य स्थिति है?
.... इन प्रश्नों के भंवर में,
सारा दिन गुजरता है....
मैं ही प्रश्न बनती हूँ,
मैं ही उत्तर.....
मैं ही वक्ता,
मैं ही श्रोता ,
मैं ही द्रष्टा....................
सच कहना -
तुम्हारे साथ भी
ऐसा होता है न ?

03 फ़रवरी, 2009

लक् बाई चांस ....


जोया अख्तर द्बारा निर्मित फ़िल्म ' luck by chance' आज की कहानी है। यूँ तो कहानी फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष की है , पर यह स्थिति आज हर जगह है ।
बेहतर हो हम अपनी बातों का सफर इस गाने को सुनते हुए करें ...........

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आंखों में सपने लिए , मंजिल की ऊंचाई पर दृष्टि टिकाये पूरी युवा पीढी खड़ी है। घर से दूर,जाने कैसी-कैसी परिस्थितियों की आग का धुंआ उनकी घुटन बन जाता है ।
एक लडकी प्राप्य के लिए साधन बनती है,उसे यही रास्ता सरल लगता है, और साधक.....वक्त आने पर उसके सपनों को टुकडों में बिखेर देता है। विरोध? किसका? और कैसे?
पति-पत्नी का रिश्ता भी नाटकीय है,पैसे की गर्मजोशी है........प्यार ढूंढा तो सपने गए !
एक और आज की सच्चाई है कि कोई किसी की सही मायनों में तारीफ़ नहीं करता,किसी से बिना मतलब बात नहीं करता और मतलब की बातचीत भी मज़बूरी है। ऊपर उठने की चाह में किसी का भी सर इस्तेमाल करो। पैसा,पैसा .........बस पैसा, मर्यादा से ऊपर पैसा, हर रिश्ते का वजूद खोखला है !
पूरी फ़िल्म एक सोच देती है - मध्यांतर के बाद शाहरुख़ खान के द्बारा जो शब्द कहे गए हैं, उसका महत्व जानते हुए भी गुमराह नायक...........प्राप्य है शोहरत और पैसा !
जोया अख्तर की पहली फ़िल्म अलग-अलग पहलुओं पर विचार करने को प्रेरित करती है, वाकई यह फ़िल्म प्रशंसा से ऊपर है !

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...