11 नवंबर, 2016

प्रत्याशित अप्रत्याशित स्थिति




कभी लगता है सन्नाटा
कभी शोर !
कभी महसूस होता है
हो गई है मिट्टी
मेरे दिलोदिमाग की
 - सख्त और बंजर !
या फिर कोई निरन्तर
एक ही जगह की मिट्टी को
हल्का बनाये जा रहा है  ... !
इतना हल्का
कि खुद के होने पर संदेह हो !!

अजीब अजीब से दृश्य पनपते हैं
मैं आग का सैलाब बनकर बहती हूँ
कभी नदी में जमी बर्फ होती हूँ
अचानक
पतली रस्सी पर
डरती
डगमगाती
आगे बढ़ने का प्रयास करती हूँ
सोचती हूँ,
मैं तो नट नहीं
फिर कैसे संभव कर पाऊँगी !
तपते
लहकते अंगारों पर
सत्य के लिए चलती हूँ
आश्चर्य
और अहोभाग्य
कि फफोले नहीं पड़ते
...
भय भी  मेरा सत्य हुआ है
दुर्भाग्य भी
सहमी काया
चीखता स्वत्व
अडिग साहस
जंगल के अँधेरे में
भयानक आवाज़ों के मध्य से
मेरा "मैं" पार हुआ है
किनारा पाकर
पुनः भँवर में पड़ी हूँ
 कई बार यह भँवर
अकस्मात् आया है
कई बार मैंने खुद बना डाला है
जानते-समझते भी मूर्खता !

महसूस होता है
ये सारी घटनाएँ
मेरे निकट
मेरे ही लिबास में
रस्सी कूद रही है  ...
कई बार इतनी तेज
कि घण्टी बजने की आवाज़ सुनाई नहीं देती
ज़रूरी सा काम
अगले दिन की प्रतीक्षा में
लौट जाता है
कह देता है,
"घर में कोई था ही नहीं  ... "

मैं थी
मैं हूँ
अरे, कहाँ जाऊँगी
...
कोई सर सहलाता है
मैं टिका लेती हूँ
अपना सर
पीछे
सुनने लगती हूँ आवाज़ें
आवाज़ों के बीच सन्नाटे को
.... प्रत्याशित
अप्रत्याशित स्थिति में   ....

04 नवंबर, 2016

प्रतिनायक




नायक खलनायक के मध्य
होता है एक चरित्र
प्रतिनायक का
घड़ी के पेंडुलम की तरह  ... !!!
कभी वह नायक से भी बढ़कर हो जाता है
कभी इतना बुरा
कि उसकी उपस्थिति भी नागवार लगती है
परिस्थितियों में उलझा
वह करने लगता है उटपटांग हरकतें
कुछ ना सही
तो जोकर बनकर हँसाने लगता है
जीत लेने के लिए सबका विश्वास
बन जाने को सबका नायक  ...

दरअसल वह तुरुप का पत्ता होता है
जब जहाँ जैसी ज़रूरत
वैसा इस्तेमाल !
बिना उसके ज़िन्दगी चलती नहीं
चल ही नहीं सकती
समय,
हुजूम
हमेशा एक सा नहीं होता
और प्रतिनायक हर डाँवाडोल स्थिति में
खरा होता है
नहले पे दहला है उसकी उपस्थिति  ...

लेकिन प्रतिनायक
इसे समझ नहीं पाता
वह कभी खुद को ज़रूरी
तो कभी गैरज़रूरी पाकर
अन्यमनस्क सा हो जाता है !
वह स्वीकार ही नहीं कर पाता
कि वह सामयिक ज़रूरत है
और ज़रूरी होना बहुत मायने रखता है
बिल्कुल रोटी,कपड़ा और मकान की तरह !
कई बार
वह नहीं समझना चाहता
कि अति सर्वत्र वर्जयेत
जैसे,
भूख न हो तो रोटी भी नहीं भाती
लेकिन इससे उसकी ज़रूरत नहीं मिटती
वैसे ही
उसका असामयिक अभिनय
किसी को नहीं भाता
लोग भी दुखी
प्रतिनायक भी दुखी !!!
...
कुछ अच्छा
कुछ बुरा
कुछ हास
इस तालमेल के साथ ज़िन्दगी चले
तभी ठीक है
अन्यथा,
नायक कब खलनायक हो
खलनायक कब नायक बन जाए
कहना
समझना
और उसे सहजता से ले पाना कठिन है

सौ बातों की एक बात -
थोड़ी मिलावट ज़रूरी है दोस्त :)

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...