कभी लगता है सन्नाटा
कभी शोर !
कभी महसूस होता है
हो गई है मिट्टी
मेरे दिलोदिमाग की
- सख्त और बंजर !
या फिर कोई निरन्तर
एक ही जगह की मिट्टी को
हल्का बनाये जा रहा है ... !
इतना हल्का
कि खुद के होने पर संदेह हो !!
अजीब अजीब से दृश्य पनपते हैं
मैं आग का सैलाब बनकर बहती हूँ
कभी नदी में जमी बर्फ होती हूँ
अचानक
पतली रस्सी पर
डरती
डगमगाती
आगे बढ़ने का प्रयास करती हूँ
सोचती हूँ,
मैं तो नट नहीं
फिर कैसे संभव कर पाऊँगी !
तपते
लहकते अंगारों पर
सत्य के लिए चलती हूँ
आश्चर्य
और अहोभाग्य
कि फफोले नहीं पड़ते
...
भय भी मेरा सत्य हुआ है
दुर्भाग्य भी
सहमी काया
चीखता स्वत्व
अडिग साहस
जंगल के अँधेरे में
भयानक आवाज़ों के मध्य से
मेरा "मैं" पार हुआ है
किनारा पाकर
पुनः भँवर में पड़ी हूँ
कई बार यह भँवर
अकस्मात् आया है
कई बार मैंने खुद बना डाला है
जानते-समझते भी मूर्खता !
महसूस होता है
ये सारी घटनाएँ
मेरे निकट
मेरे ही लिबास में
रस्सी कूद रही है ...
कई बार इतनी तेज
कि घण्टी बजने की आवाज़ सुनाई नहीं देती
ज़रूरी सा काम
अगले दिन की प्रतीक्षा में
लौट जाता है
कह देता है,
"घर में कोई था ही नहीं ... "
मैं थी
मैं हूँ
अरे, कहाँ जाऊँगी
...
कोई सर सहलाता है
मैं टिका लेती हूँ
अपना सर
पीछे
सुनने लगती हूँ आवाज़ें
आवाज़ों के बीच सन्नाटे को
.... प्रत्याशित
अप्रत्याशित स्थिति में ....