मैं वृक्ष,
वर्षों से खड़ा हूँ
जाने कितने मौसम देखे हैं मैंने,
न जाने कितने अनकहे दृश्यों का,
मौन साक्षी हूँ मैं !
पंछियों का रुदन सुना है,
बारिश में अपनी पत्तियों का नृत्य देखा है,
आकाश से मेरी अच्छी दोस्ती रही है,
क्योंकि धरती से जुड़ा रहा हूँ मैं ।
आज मैंने अपने शरीर से वस्त्ररूपी पत्तियों को गिरा दिया है,
इसलिए नहीं कि अब मैं मौसम के थपेड़े नहीं झेल सकता !
बल्कि इसलिए, कि -
मैं अपनी जगह नहीं बदल सकता !
और इस वजह से
जाने कितने आतताई,
मेरी छाया में,
अपनी कुटिलता का बखान करते रहे हैं ।
सुनी है मैंने चीखें,
उन लड़कियों की,
जिन्होंने मेरी डाली पर डाला था झूला,
सावन के गीत गाये थे !!!
आँधी की तरह मैं गरजता रहा,
पर कुछ नहीं कर सका
अंततः
भीतर ही भीतर शुष्क होता गया हूँ,
पत्तियों को भेज दिया है धरती पर,
ताकि उनकी आत्मा को एक स्पर्श मिल जाये
और मुझे ठूंठ समझ,
कोई मेरे निकट न आये ...
बहुत सुंदर भाव
जवाब देंहटाएंसुन्दर। हम सब वृक्ष हैं।
जवाब देंहटाएंबिलकुल
हटाएंमार्मिक रचना ! इंसानियत ही आज ठूंठ होती जा रही है
जवाब देंहटाएंकुकर्म में किसी न किसी अबोध चीज का सहारा अपने आप मिल जाता है
जवाब देंहटाएंऔर पाप में हाथ बंटा लेता है।
ये मौन वृक्ष नहीं
हमारा समाज है।
लाजवाब लाजवाब लाजवाब।
पधारें 👉👉 मेरा शुरुआती इतिहास
अद्भुत! गजब भाव संयोजन।
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूब!!
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