पिताश्री,
मैं आपका राम
ठुमक ठुमक चलते हुए कब समय बदला
और हम चारों भाई गुरुकुल में
गुरु वशिष्ठ से शिक्षा लेने लगे
-पता ही नहीं चला !
गुरु विश्वामित्र के संग फिर आगे बढ़ा
बढ़ते बढ़ते जीवन के विभिन्न रसों से मिलता गया
लेकिन जिस दिन आपको हारा हुआ देखा
मेरी आंखों के आगे से वह दृश्य गुजरा ...,
जहां मेरे नन्हें पैरों की गति से आप
जानबूझकर हार रहे थे
और खुश थे !
लेकिन यह हार मृत्यु सी थी
और वचन सुनकर
मेरे क्षत्रिय मन ने कहा
एक सिंहासन क्या
मैं दुनिया छोड़ सकता हूँ !!
पर, मैं स्तब्ध बहुत था यह सोचकर
कि मां कैकेई ने ऐसा वचन क्यों मांगा !!!
जो प्यार,आशीष उन्होंने दिया था
वहां उनकी एक आज्ञा काफ़ी होती,
क्योंकि निष्प्रयोजन
पूरी दुनिया के आगे कलंक शिरोधार्य करके
विशेषकर अपने पुत्र भरत का सर नीचा करके
क्षत्राणी मां कैकेई यह क़दम उठाती ही नहीं !!! ...
चौदह वर्ष बहुत होते हैं मन बदलने के लिए !!!
टुकड़े भर जमीन के लिए
रिश्ते बिखर जाते हैं
लेकिन, -
सामने अयोध्या का राज्य था
और हमारा भरत नि:स्वार्थ सरयू के किनारे
सारे सुखों से दूर अपना कर्तव्य निभाता गया ।
हाँ मैं राम,
यंत्रवत सबकुछ करता गया...
तीनों मांओं से दूर हुआ,
आपको खो दिया,
भाइयों की बैठकी,सहज बातों से दूर हुआ
क़दम क़दम पर होनी ने मुझे आंधी -तूफान में डाला ...
हाँ मैं राम,
बड़ों के निर्णय के आगे
मन की छोटी छोटी चाह को
पर्णकुटी में पिरोता रहा ।
प्रजा की खुशी, नाखुशी में
सामान्य से असामान्य हुआ
कहने को कुछ भी नहीं बदला
पर सच तो यही रहा !
रघुकुल रीत निभाते हुए
मैं सिर्फ और सिर्फ सूर्यवंशी राजा हुआ
मनुष्य से भगवान बनाया गया
सीता से दूर
लवकुश के जन्म से अनभिज्ञ
या तो पूजा जाने लगा
या फिर कटघरे में डाला गया ...
मैं सफाई क्या दूं !!! ...