31 अक्टूबर, 2007

29 अक्टूबर, 2007

उससे पहले...




अभी-अभी
बस - कुछ पल पहले
मेरी गोद में चढ़ कर नाचे थे तुम सब...
कब नन्हें पैर नीचे उतरे
कब गुड्डे, गुड्डियों का खेल ख़त्म हुआ
कोई आहट नही मिली...
शहनाइयाँ बजने लगी तो जाना ,
ये वह ही नन्हें पाँव हैं...
जिनमे थिरकन डाल कर , साथ थिरक कर ,
मैं भी जवान हुई थी!
वक़्त की रफ़्तार बड़ी तेज़ है...
कस कर थामो इस
आओ ,
एक बार फिर थिरक लें ...
कौन जाने
किन - किन नन्हें पैरों में तुम्हे भी डालनी पड़े थिरकन....
कब वो तुम्हारी गोद से नीचे उतरे....
उस से पहले
हम फिर जी लें अतीत को वर्तमान में....


कागज़ की नाव




बड़ी लम्बी, गहरी नदी है..
पार जाना है...
तुम्हे भी, मुझे भी...
नाव तुम्हारे पास भी नहीं,
नाव मेरे पास भी नहीं...
जिम्मेदारियों का सामान बहुत है...
बंधू,
बनाते हैं एक कागज़ की नाव...
अपने-अपने नाम को उसमे डालते हैं॥
देखें,
कहाँ तक लहरें ले जाती हैं...
कहाँ डगमगाती है कागज़ की नाव...
और कहाँ जा कर डूबती है!
निराशा कहाँ है?
किस बात में है?
कागज़ की नाव को तो डूबना ही है...
पर जब तक न डूबे...
देखते-देखते वक़्त तो गुज़र जायेगा...
और जब डूबे...
तो दो नाम एक साथ होंगे....

28 अक्टूबर, 2007

अद्भुत शिक्षा !







सब पूछते हैं-आपका शुभ नाम?
शिक्षा? क्या लिखती हैं?
हमने सोचा - आप स्नातक की छात्रा हैं
मैं उत्तर देती तो हूँ,
परन्तु ज्ञात नहीं,
वे मस्तिष्क के किस कोने से उभरते हैं!
मैं?
मैं वह तो हूँ ही नहीं।
मैं तो बहुत पहले
अपने तथाकथित पति द्वारा मार दी गई
फिर भी,
मेरी भटकती रूह ने तीन जीवन स्थापित किये!
फिर अपने ही हाथों अपना अग्नि संस्कार किया
मुंह में डाले गंगा जल और राम के नाम का
चमत्कार हुआ
............अपनी ही माँ के गर्भ से पुनः जन्म लेकर
मैं दौड़ने लगी-
अपने द्वारा लगाये पौधों को वृक्ष बनाने के लिए
......मैं तो मात्र एक वर्ष की हूँ,
अपने सुकोमल पौधो से भी छोटी!
शुभनाम तो मेरा वही है
परन्तु शिक्षा?
-मेरी शिक्षा अद्भुत है,
नरक के जघन्य द्वार से निकलकर
बाहर आये
स्वर्ग की तरह अनुपम,
अपूर्व,प्रोज्जवल!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...