06 अक्तूबर, 2008

मन-से-मन तक !!!


शरीर की मानसिकता
मन तक कहाँ जाती है ?
मन के चरागाहों में घूमते
तुम रो पडोगे,
जब साथ चलनेवाला
शरीर से ऊपर नहीं उठ पाता !
तुम मन से गंगा को धरती पर लाओ,
कोई उपलब्धि नहीं............
पर,सिर्फ़ शरीर की परिधि में -
नाम,शोहरत....सब संभव है !
साहित्य कितनों को लुभाता है भला.....?
पर जिन किताबों में
अश्लीलता बेची जाती है,
वह क्षणांश में
हाथों-हाथ बिक जाती है !
दोष लिखनेवालों का कहाँ होता है,
वे तो मानसिकता को खुराक देते हैं !
शरीर मन का दूसरा पहलु है
इसे कम लोग जानते हैं
और यही जानकारी उन्हें रुलाती है !
मैं अक्सर उन आंसुओं को
करीने से सजाती हूँ
और मन-से-मन की उड़ान भरती हूँ !

25 टिप्‍पणियां:

  1. main aksar un nasoo-on ko....

    bahut bahut sundar baat kah dee padh ke achha laga

    Anil

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  2. भावपूर्ण कविता। बधाई।

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  3. mann ke charaagahon men ghumate hue tum ro padoge........
    bahut khoob soch hai.
    sach hi shareer ki pareedhi men hi insaan sochta hai.
    shareer mann ka doosra pahalu hai.....
    bilkul sahi baat..yadi mann samarpit to tann ki koi samasya hi nahi.......
    ek achchhi abhivyakti.
    badhai

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  4. Rashmiji, sharir aur man ki itni sundar vyakhya. dikhave aur asaliyat, sachai aur jhhot ka itana sundar vishleshan sabdon ke sanyojan se, bahut achha laga. aapki rachnayen stareeya hoti hain.blog par jis din bhi main aata hun us din apani pasand ki rachnayen jarur padhta hun.Samay jarur kam milta hai kyonki mera kaam hi aisa hai.

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  5. रश्मि जी...हमेशा की तरह बेहद खूबसूरत रचना...सच के बहुत करीब...आपने तो मेरी ग़ज़ल के एक शेर को अपने शब्द दे दिए हैं:
    जिस्म की पुरपेच गलियों में भटकना छोड़ दो
    प्यार की मंजिल को रास्ता यार दिल से जाएगा
    नीरज

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  6. सही है, भीड़ की मानसिकता को ध्यान में रखकर लिखी गयी रचना जल्द ही सस्ती शोहरत दे जाती है लेकिन यह भी एक सच्चाई है की भीड़ के विपरीत जो सधे हुए पदचिन्ह पड़ जाते है, उनके निशा मिटाए नहीं मिटते |

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  7. क्या बात है, एक सचाई आप ने कविता मै उतार दी,
    मै अकसर उन आंसुअओ....
    धन्यवाद

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  8. वाह जी, अति भावपूर्ण अभिव्यक्ति!! बधाई.

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  9. शारीर मन का दूसरा पहलू है... बहुत सच है !!
    बहुत गहरी विवेचना है.. बहुत गहरी ..!!!

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  10. सच है ये मन और मस्तिष्क का मिलन कहाँ हो पाता है.,
    मन चंचल और निर्मल होता है,
    धरती पर व्याप्त सभी बुराइयों से परे होता है मन.......
    पर हमारा मस्तिष्क और शारीर मन पारी हावी हो जाते है और....
    हम बुराइयों की ओर चल पड़ते है.......,
    शरीर सिर्फ ज़रूरतों को जानता है,.......
    और अच्छे बुरे का फर्क ख़त्म हो जाता है.......
    और उन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए
    मन की शुध्हता को भी समाप्त कर देता है......
    "शरीर मन का दूसरा पहलु है इसे कम लोग जानते है"
    यह बिलकुल सही है, शरीर और मन का मेल कम ही लोग कर पाते है......
    शरीर की ज़रूरतों को मन के भावो से मिला कर बहुत ही कम लोग चल पाते है.....
    आपकी इस रचना ने मन को गहराई से सोचने को मजबूर कर दिया.....,
    मन के सभी भावः बहार आ गए......
    यथार्थ चित्रण......

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  11. शरीर मन का दूसरा पहलू है

    इसे कम लोग जानते हैं
    और यही जानकारी उन्‍हें रूलाती है।


    सुन्‍दर पंक्तियॉं, बधाई।

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  12. साहित्य -मन की भटकन को शब्द का शारीर दे कर आपने अनुग्रहित किया है,रश्मि जी..

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  13. वाह दी, बिलकुल सही कहा आपने..! प्यार शरीर से ऊपर नहीं उठ पाता आजकल और साहित्य में लोग अश्लीलता पढना चाहते हैं.. जो बिकता है वही दुकानदार भी बेचना चाहता है.. प्रेमचंद्र, टैगोर, प्रसाद या पन्त जी के लिखे साहित्य को कितने लोग पढ़ते हैं? ऐसे लोग गिनती के होंगे पर अश्लील साहित्य अधिकतर युवा पढना चाहेगा.. भले ही उसमे दिया ज्ञान अधूरा या गलत क्यों ना हो..!! और इसी तरह प्यार का तो बस आजकल नाम रह गया है, सच्चा प्यार कौन करता है? सभी भवरे बन गये हैं.. हर फूल का रस तो चाहते हैं पर किसी शमा पर पतंगे की तरह फ़िदा नहीं हो सकते.. और जो होते हैं उन्हें अब बेवकूफों की गिनती में रखा जाता है.. यही है फर्क अब और पहले की दुनिया में.. और फिर जब ऐसे में उन्हें भी ऐसा ही साथी मिलता है तब उनके आंसू निकलते हैं..
    हम जो चीज इस दुनिया को देते हैं वही एक दिन हमे वापस भी मिलती है.. तब वो कहावत याद आती है की जो बोया है वही काटोगे.. तब पता चलता है की दुनिया गोल है.. चलना तो जीवन है पर सही दिशा में चलना ज्यादा अहम् है ना कि किसी भी गलत दिशा में चल देना..

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  14. शरीर मन का दूसरा पहेलु है ये जानकारी उन्हें सताती है रुलाती है सही बात है
    लेकिन क्या मन की इच्छाए शरीर पर अपना काबू करती हैं या शरीर मन को विवश करता है मानसिक रूप से उन इच्छाओं की और झुकाव पैदा करता है मन वही चाहता है जो सही हो भलाई के लिए हों हमारी और दुसरो की लेकिन क्या शरीर ऐसा चाहता है की हम दुसरो का सोच पाए शायद नहीं चाहता क्यूंकि आज मन की कौन सुनता है कुछ को छोड़ कर सब इतना घिर गए हैं परेशान हो गए हैं या कहे लीजिये किसी बात की मज़बूरी हो सकती है की मन का ना हो दिमाग से ज्यादा काम लेते है और दिन बा दिन कठोर होते जा रहे है अपने प्रति भी और दुसरो के प्रति भी....................

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  15. सिर्फ़ क्षणिकाएं पढता रहा और अपने आप को विद्वान् सवित करने के प्रयास में टिप्पणी लिखता रहा ,ठीक उसी तरह जैसे कोई अल्पज्ञ सिर्फ़ समुद्र के किनारे टहलने वाला ,मोतियों के गुण-दोषों पर ,उनकी उपलब्धता ,अनुपलब्धता पर अपनी राय प्रकट करने लगे /
    देबयोग से जब यहाँ आया ""मेरी भावनाएं ""में तो अपनी टिप्पणियों पर पश्चात्ताप भी हुआ और शर्मिंदगी भी /मन लगाने की बात ओशो ने बहुत कही ,मन को मारना ,कुचलना ,दवाना ,उसे बश में करना बहुत पढ़ा किंतु मन-से-मन की उड़ान =एक नया सोच ,नई विचारधारा ,एक नई जीवन शैली ,एक नया आर्ट आफ लिविंग {रविशंकरजी }पढ़ कर हतप्रभ रह गया /दर्शन ,आध्यात्म ,रहस्यबाद ,छायाबाद ,या फिर बिल्कुल सीधा साधा "सरलबाद "" =फिर शरीर की परिधि में शोहरत की सम्भावना विल्कुल गीता का सांख्य-योग , और फिर शरीर की मानसिकता =वह भी शरीर और मन को प्रथक दर्शाते हुए = मन की मानसिकता और शरीर की मानसिकता ?
    कैसी किताबें बिक जाती हैं दोष लिखने वाले का कहाँ के सम्बन्ध में मेरे ब्लॉग के लेख ""कहाँ खो गया कवि मतवारा ""तथा ""शर्मनाक ""पर द्रष्टि डालने के विनती है इस निवेदन के साथ की
    देता रहा मैं उनके लेखन पे टिप्पणी
    जैसे किसी ने सूर्य को दीपक दिखा दिया
    मेरी भावनाओं की गहराई में गया
    मुझको गहन-तम में उजाला दिखा दिया

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  16. बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना ....बधाई

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  17. man ke charagah mein ghoomte tum ro padoge

    bahut khoob kaha rashmi ji aapne, shabdon ka aisa tana bana, sab dil khol ke keh diya aapne.
    bahut khoob

    thanks for writng on my blog

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  18. aakhri panktiyaan bahuthi arthwaan hai.

    jaldibaazi mein kavita post karne se parhez kiya kijiye.

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  19. क्या गहरी बात कह दी रश्मि जी आपने, बहुत ही सटीक शब्दों में इतनी विरली बात. बहुत ही उम्दा बहुत ही नायब. पूरी रचना जैसे की पिरोई हुई एक माला हो, जिसका हर शब्द एक एक मोती.

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दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...