धरती,आकाश के दराजों से
हमेशा मैंने आशीष,दुआओं के
अनमोल,दुर्लभ
चाभीवाले खिलौने निकाले हैं
ताकि चेहरे की मुस्कान में क्षितिज नज़र आये
जिसे जो भी देखे - दूर से देखे
पास जाकर नफ़रत का आगाज़ न कर पाये
.........
नफरत से चेहरे की कोमलता खत्म हो जाती है
बचपन रूठ जाता है
बात बात पर ज़ुबान से कटु बोल निकलते हैं
जिनसे कोई रिश्ता नहीं पनपता
हाँ - संजोये एहसास विकृत हो जाते हैं !!
......
जीवन में मैंने ख़ामोशी के अस्त्र-शस्त्र इसलिए नहीं उठाये
कि मैं कमज़ोर थी
दुर्गा के नौ रूप तो मेरा अस्तित्व हैं
पर मातृ रूप को मैंने विशेष बनाया
संहार किया प्रश्नों का निरुत्तर होकर ...
रक्तपात मेरे सपनों का उज्जवल भविष्य नहीं हो सकता था
तो स्वयं को निर्विकार समझौते की कीलो से
सामयिक यात्रा की सलीब पर चढ़ा दिया !
अदृश्य रक्त धरती को सिंचते गए
वाष्पित हो आकाश को छूते गए
सिलसिला जारी रहा ...
तारों के टिमटिमाते गीत यूँ ही नहीं मिले हैं मुझे
ये तो उन खिलौनों का कमाल है
जिसमें चाभी भरकर
बच्चों के संग बच्चा बन मैंने भी तालियाँ बजाई हैं
!!!
चाँद को मैं आज भी मामा कहती हूँ
चरखा चलाती अम्मा के अनुभव सुनती हूँ
अनुभवों की चाशनी बना खीर में डालती हूँ
हौसलों के स्रोत को भोग लगाती हूँ
खामोश धागों के कमाल पर आगे की यात्रा करती हूँ !!!