हम जो बोलते हैं
उसे तौलते भी जाते हैं
मन इंगित करता रहता है
-ये है सही और ये गलत
गलत को दिखाती मन की ऊँगली
हम धीरे से हटा देते हैं
या फिर तर्कों से भरा ज़िद्दी अध्याय खोल लेते हैं
अपनी बात रखते हुए
सही को काटते हुए
अंततः हम वहाँ पहुँच जाते हैं
जहाँ से लौटना अपमानजनक लगने लगता है !
तटस्थता में हम घुटने लगने लगते हैं
'यह मेरी गलती थी' - इसे कहने में वर्षों लगा देते हैं
जानते हुए भी
कि इसकी घुटन हमें ही जीने नहीं दे रही !!
गलती का एक रास्ता भारी पड़ता है
फिर क्यूँ दोराहे, चौराहे बनाना ?
ज़िद्द की कोई उम्र नहीं होती
वह तो वही दम तोड़ देती है
जहाँ वह जन्म लेती है !
मृत भावनाओं को पालने से
उसकी राक्षसी भूख मिटाने से
कुछ नहीं मिलता
सिवाए बंजर जमीन के
और वहाँ कोई मृगतृष्णा भी नहीं होती
सारे जीवनदायी भ्रम तक खत्म हो जाते हैं
साँसें चलती हैं
तो जी लेते हैं
पर ये जीना भी कोई जीना है !!!