(दशरथ मांझी नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी के चेहरे में दिखा … और सोच की खलबली होती रही )
सुना था दशरथ मांझी के प्रेम को
प्रेम ! तलाश ! परिवर्तन !
- यह सब एक पागलपन है
धुन में सराबोर, झक्की से चेहरे
पत्थर मारो, या कुछ भी कहो
धुन के आगे कोई भी रुकावट नहीं होती !
यूँ तो शाहजहाँ की उपमा दी गई है
लेकिन बहुत फर्क है
आर्थिक सामर्थ्य और आत्मिक सामर्थ्य में
… शाहजहाँ ने एक सौंदर्य दिया
दशरथ मांझी ने सुविधा दी
सत्य मिथक के मध्य सुना है
शाहजहाँ ने कारीगरों के हाथ कटवा दिये थे
और मांझी ने अपने को समर्पित कर दिया !
सोचती हूँ प्रेम में डूबा
पत्थरों को छेनी से तोड़ता मांझी
उन पहाड़ों से क्या क्या कहता होगा
क्या क्या सुनता होगा
फगुनिया के लिए क्या क्या
कैसे कैसे सोचता होगा !
एक एक दिन को
उसने कैसे जीया होगा
अनुमान मांझी तक नहीं जाता
उन सड़कों पर भी नहीं
जो दशरथ मांझी के नाम से है …
कभी मिलूँगी उन पहाड़ों से
उसकी आँखों को पढ़ने की कोशिश करुँगी
जिसमें एक एक दिन के पन्ने हैं !