16 नवंबर, 2015

देना चाहती हूँ तुम्हें संजीवनी सा मौन






मेरे बच्चों,
मुझे जाना तो नहीं है अभी
जाना चाहती भी नहीं अभी
अभी तो कई मेहरबानियाँ
उपरवाले की शेष हैं
कई खिलखिलाती लहरें
मन के समंदर में प्रतीक्षित हैं
लेना है मुझे वह सबकुछ
जो मेरे सपनों के बागीचे में आज भी उगते हैं
इस फसल की हरियाली प्रदूषण से बहुत दूर है
सारी गुम हो गई चिड़ियाएँ
यहाँ चहचहाती हैं
विलुप्त गंगा यहीं हैं
कदम्ब का पेड़ है
यमुना है
बांसुरी की तान है  …
कॉफी के झरने हैं
अलादीन का जिन्न
चिराग में भरकर पीता है कॉफ़ी
सिंड्रेला के जूते इसी बागीचे में
फूलों की झालरों के पीछे हैं
गोलम्बर को उठाकर मैंने यहीं रख दिया है
कल्पनाओं की अमीरी का राज़
यहीं है यहीं है यहीं है   …
०००
समय भी आराम से यहाँ टेक लगाकर बैठता है
फिर भी,
समय समय है
तो उस अनभिज्ञ अनदेखे समय से पहले
मैं इन सपनों का सूत्र
तुम्हारी हथेली में रखकर
तुम्हारी धड़कनों के हर तार को
हल्के कसाव के संग
लचीला बनाना चाहती हूँ
- यूँ बनाया भी है
पर तुमसब मेरे बच्चे हो
जाने कब तुमने मेरी कोरों की नमी देख ली थी
आज तलक तुम नम हो
और सख्त ईंट बनने की धुन में लगे रहते हो
०००
मुझे रोकना नहीं है ईंट बनने से
लेकिन वह ईंट बनो
जो सीमेंट-बालू-पानी से मिलकर
एक घर बनाता है
किलकते कमरों से मह मह करता है
इस घर में
इस कमरे में
मैं - तुम्हारी माँ
तुम्हारी भीतर धधकते शब्दों के लावे को
मौन की शीतल ताकत देना चाहती हूँ  …
०००
निःसंदेह पहले मौन की बून्द
छन् करती है
गायब हो जाती है
पर धीरे धीरे तुम्हारा मन
शांत
ठंडा
लेकिन पुख्ता होगा !
एक तूफ़ान के विराम के बाद
तुम्हारे कुछ भी कहने का अंदाज अलग होगा
अर्थ पूर्णता लिए होंगे
तूफ़ान में उड़ते
लगभग प्रत्येक धूलकणों की व्याख्या
तुम कर पाओगे
और सुकून से सो सकोगे
जी सकोगे !
मौन एक संजीवनी बूटी है
जो हमारे भीतर ही होती है
उसका सही सेवन करो
 फिर एक विशेष ऊर्जा होगी तुम्हारे पास !
०००
श्री श्री रविशंकर कहते हैं
कि 1982 में
दस दिवसीय मौन के दौरान
कर्नाटक के भद्रा नदी के तीरे
लयबद्ध सांस लेने की क्रिया
एक कविता या एक प्रेरणा की तरह उनके जेहन में उत्तपन्न हुई
उन्होंने इसे सीखा और दूसरों को सिखाना शुरू किया  …
फिर तुम/हम कर ही सकते हैं न !
०००
मौन अँधेरे में प्रकाश है
निराशा में आशा
कोलाहल की धुंध को चीरती स्पष्टता
धैर्य और सत्य के कुँए का मीठा स्रोत
....
हाथ बढ़ाओ
इस कथन को मुट्ठी में कसके बाँध लो
जब भी इच्छा हो
खोलना
विचारना
जो भी प्रश्न हो खुद से पूछना
क्योंकि तुमसे बेहतर उत्तर
न कोई दे सकता है, न देना चाहेगा !
यूँ भी,
 दूसरा हर उत्तर
तुम्हें पुनः उद्द्वेलित करेगा
तुम धधको
उससे पहले मौन गहराई में उतर जाओ
हर मौन से मिलो
फिर तुम समर्थ हो
ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव पर
तुम सहजता से चल लोगे 

3 टिप्‍पणियां:

  1. मैं - तुम्हारी माँ
    तुम्हारी भीतर धधकते शब्दों के लावे को
    मौन की शीतल ताकत देना चाहती हू..

    Hamesha ki tarah aapki rachna bahut kubhsoorat... Blog par laut aaya hun.. waqt mile to aaiyega maargdarshan hetu.. dhanyawaad...

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