18 नवंबर, 2015

द्रौपदी - कुंती





कुंती 
वाकई तुम माँ' कहलाने योग्य नहीं थी !!!
अरे जब तुमने समाज के नाम पर 
अपने मान के लिए 
कर्ण  को प्रवाहित कर दिया 
पुत्रो की बिना सुने मुझे विभाजित कर दिया 
तो तुम क्या मेरी रक्षा करती ?!
मन्त्रों का प्रयोग करनेवाली तुम 
तुम्हें क्या फर्क पड़ता था 
अगर तुम्हारे पुत्र मुझे हार गए 
और दुःशासन मुझे घसीट लाया 
.... 
दम्भ की गर्जना करता कौरव वंश 
और दूसरी तरफ  … 
स्थिर धर्मराज के आगे स्थिर अर्जुन 
भीम,नकुल-सहदेव  … 
भीष्म प्रतिज्ञा करनेवाले पितामह 
परम ज्ञानी विदुर 
.... !!!
धृतराष्ट की चर्चा तो व्यर्थ ही है 
वह तो सम्पूर्णतः अँधा था 
पर जिनके पास आँखें थीं 
उन्होंने भी क्या किया ?
पलायन, सिर्फ पलायन  .... 

आज तक मेरी समझ में नहीं आया 
कि सबके सब असमर्थ कैसे थे ?
क्या मेरी इज़्ज़त से अधिक 
वचन और प्रतिज्ञा का अर्थ था ?

मैं मानती हूँ 
कि मैंने दुर्योधन से गलत मज़ाक किया 
अमर्यादित कदम थे मेरे 
पर उसकी यह सजा ?!!!
… 
आह !!!
मैं यह प्रलाप तुम्हारे समक्ष कर ही क्यूँ रही हूँ !

कुंती, 
तुम्हारा स्वार्थ तो बहुत प्रबल था 
अन्यथा -
तुम कर्ण की बजाये 
अपने पाँच पुत्रों को कर्ण का परिचय देती 
रोक लेती युद्ध से !
तुम ही बताओ 
कहाँ ? किस ओर सत्य खड़ा था ?

यदि कर्ण को उसका अधिकार नहीं मिला 
तो दुर्योधन को भी उसका अधिकार नहीं मिला 
कर्ण ने तुम्हारी भूल का परिणाम पाया 
तो दुर्योधन ने 
अंधे पिता के पुत्र होने का परिणाम पाया 
.... कुंती इसमें मैं कहाँ थी ?
मुझे जीती जागती कुल वधु से 
एक वस्तु कैसे बना दिया तुम्हारे पराक्रमी पुत्रों ने ?

निरुत्तर खड़ी हो 
निरुत्तर ही खड़ी रहना 
तुम अहिल्या नहीं 
जिसके लिए कोई राम आएँगे 
और उद्धार होगा !
और मैं द्रौपदी 
तीनों लोक, दसों दिशाओं को साक्षी मानकर कहती हूँ 
कि भले ही महाभारत खत्म हो गया हो 
कौरवों का नाश हो गया हो 
लेकिन मैंने तुम्हें 
तुम्हारे पुत्रों को माफ़ नहीं किया है 
ना ही करुँगी 
जब भी कोई चीरहरण होगा 
कुंती 
ये द्रौपदी तुमसे सवाल करेगी 

 .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... 

द्रौपदी,
मैं समझती हूँ तुम्हारा दर्द 
पर आवेश में कहे गए कुछ इलज़ाम सही नहीं 
मेरी विवशता, 
मेरा डर 
मेरा अपराध हुआ 
पर, 
तुम ही कहो 
मैं क्या करती ?!
माता से कुमाता होना 
मेरी नियति थी 
उस उम्र का भय  … 
मुझे अपाहिज सा कर गया 
… 
राजकन्या थी न 
पिता की लाज रखते हुए 
पाण्डु पत्नी हुई !
दुर्भाग्य कहो 
या होनी की सजा 
मुझे मंत्र प्रयोग से ही मातृत्व मिला 
फिर वैधव्य  … 
मैं सहज थी ही नहीं द्रौपदी !!
पुत्रों की हर्ष पुकार पर मैंने तुम्हें सौंप दिया 
लेकिन !!!
मेरी आज्ञा अकाट्य नहीं थी 
मेरे पुत्र मना कर सकते थे 
पर उन्होंने स्वीकार किया !
द्रौपदी,
यह उनकी अपनी लालसा थी 
ठीक जैसे द्यूत क्रीड़ा उनका लोभ था 
भला कोई पत्नी को दाव पर लगाता है !!
मैं स्वयं भी हतप्रभ थी 
जिस सभा में घर के सारे बुज़ुर्ग चुप थे 
उस सभा में मैं क्या कहती ?
तुम्हारी तरह मैं भी कृष्ण को ही पुकार रही थी 
.... 
मेरी तो हार हर तरह से निश्चित थी 
एक तरफ कर्ण था 
दूसरी तरफ तथाकथित मेरे पांडव पुत्र !
अँधेरे में मैंने कर्ण को मनाना चाहा 
युद्ध को रोकना चाहा 
लेकिन मान-अपमान के कुरुक्षेत्र में 
मैं कुंती 
कुछ नहीं थी !
फिर भी,
मैं कारण हूँ 
तुम मुझे क्षमा मत करो 
पर मानो 
मैंने जानबूझकर कुछ नहीं किया !!!

12 टिप्‍पणियां:

  1. आज भी कुंती और द्रौपदी की अपनी अपनी व्यथा-कथा समाज में जब तब सामने आती है ..महाभारत का कोई अंत नहीं ....
    बहुत अच्छी सामयिक चिंतनशील रचना ...

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अमर शहीद कर्नल संतोष को हार्दिक श्रद्धांजलि , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. क्या कहें --किसी भी परिस्थिति में कुछ भी निर्णय ले, दोष नारी पर ही आता है !

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  4. हर परिस्थिति में नारी ही विवश नज़र आती है।

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  5. गंभीर चिंतन. नारी की व्यथा वह स्वम ही समझ सकती है. परन्तु हरेक निर्णय पर प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं.

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  6. क्या कहें ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर नहीं हैं

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  7. बहुत ही उम्दा रचना। होना ये चाहिए लेकिन कि कुंती और द्रौपदी मिलकर, उस युग के "महापुरुषों" की कॉलर पकड़ें।

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  8. कुंती और द्रोपदी के मन के भाव ..... परिस्थिति अनुसार लिए गए फैसले ....कालांतर में उन पर लग जाते हैं प्रश्नचिह्न .... वक़्त गुज़र जाता है लेकिन प्रश्न पीछा नहीं छोड़ते ....
    गहराई में उतर कर आपने दोनों पात्रों के मन के भावों को शब्दों में बाँधा है ... साधुवाद

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  9. बहुत खूबसूरत दीदी।
    इतने गहन चिंतन की ज़रूरत आज की हर कुंती और द्रोपदी को है।
    रचना के लिए बहुत बधाई

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...