20 जून, 2016

लापता परखचे




एक विस्फोट
... और शरीर के परखचे 
इधर से उधर बिखरे हुए 
सारे टुकड़े मिलते भी नहीं !!

लापता व्यक्ति 
न जीवित 
और  ... मृत तो बिल्कुल नहीं !!

खुली आँखों के आगे 
एक टुकड़े की तलाश 
और इंतज़ार 
आँखों की पोरों में सूख जाती है 
लुप्त गंगा सी !!

लेकिन उस विस्फोट में, 
जहाँ शरीर,
मन के परखचे दिखाई देते हैं 
उन्हें न जोड़ पाने की तकलीफ भी 
नहीं जोड़ी जा सकती !

दिनचर्या,
पेट की आग,
जीवन के कर्तव्य  
और टुकड़ों को सीने की कोशिश  ... !!!

अपने मन से तो कोई लापता भी नहीं होता 
खुद को देखते हुए 
अनजान होकर चलना 
त्रासदाई है !
होकर भी ना होने की विवशता 
ये होते हैं लापता परखचे 
जिनकी न कोई चीख होती है 
न कोई आहट 
न खुशी 
न दर्द 
सिर्फ एक सन्नाटा  ... 

साल,तारीखें  ... मन के अंदरूनी परखचों पर लिखे होते हैं 
विस्फोट की भयानक आवाज़ें 
रिवाइंड,प्ले होती रहती हैं 
एक एक टुकड़े 
कुछ न कुछ कहते रहते हैं 
सुनते हुए बहरा बना आदमी 
हँसता भी है 
व्यवहारिकता भी निभाता है 
लेकिन  ... परखचों से मुक्त नहीं होता !!!

14 जून, 2016

मैं स्त्री






मैं स्त्री
मुझे दी गई है व्यथा
पर मैं व्यथा नहीं हूँ
मुझमें आदिशक्ति का प्रवाह है
है अपने स्व' के लिए धरती में समाने की क्षमता
प्रश्नों के घेरे में राहुल को पालने का मनोबल  ...
मेरे आँसू
मेरी कमज़ोरी नहीं
मंथन है
जीवन-मृत्यु का
यदि मैं माँ; हूँ
तो मैं जीना चाहती हूँ
अपने सम्पूर्ण कर्तव्यों के लिए
यदि मैं परित्यक्ता हूँ
तो मैं जीना चाहती हूँ
अपने सत्य के लिए
यदि छीन ली गई है मेरी तथाकथित इज़्ज़त
तो मैं जीना चाहती हूँ
उदाहरण बनना चाहती हूँ
मौन शाप का परिणाम देखना चाहती हूँ
!!!
मेरे आँसू मेरी हार नहीं
मेरी जिजीविषा हैं
क्योंकि हर हिचकी के बाद
एक इंद्रधनुष मेरी वजूद में होता है
...
मैं स्त्री
कृष्ण बनने की कला जानती हूँ
अपने अंदर गणपति का आह्वान करके
अपनी परिक्रमा करती हूँ
मैं स्त्री,
धरती में समाहित अस्तित्व
जिसके बगैर कोई अस्तित्व नहीं
न प्राकृतिक
न सामाजिक
और मेरे आँसू
भागीरथी प्रयास  ... !!!

10 जून, 2016

.....लोग !!!





तमाम उम्र सोचती रही 
कहना है लोगों के बीच अपना सच  ... 
लोग !
लोग !
लोग !
उम्र अब लगभग एक पड़ाव पर है 
और लोग !!! 

लोग नहीं बदले  ... 
मेरी सोच बदल गई -
वे सच जानकर करेंगे क्या !
उन्हें तो सच पहले भी मालूम था 
बस उसे वे मानना नहीं चाहते थे 
गर्म खौलते तेल में पड़ जाए हाथ 
उनकी चाह रही 
जाने क्या संतुष्टि थी !
अब मैं सोचती हूँ 
सच तो जो था 
वो अपनी जगह भयावह था 
लेकिन लोग !!! 
उनसे अधिक नहीं  ... 

03 जून, 2016

शूर्पणखा





शूर्पणखा

रामायण की वह पात्र 
जिसने अपनी मंशा के आगे 
राम लक्ष्मण की विनम्र अस्वीकृति को 
स्वीकार नहीं किया 
और अंततः दंड की वह स्थिति उत्पन की 
जिसने सिद्ध किया 
कि 
अपनी गलतियों पर पर्दा डालकर 
सही" की धज्जियाँ उड़ाई जा सकती हैं !

सीता अपहरण 
जटायु वध 
लंका का सर्वनाश 
सीता की अग्निपरीक्षा 
सीता के चरित्र पर लांछन 
लव कुश का पिताहीन बचपन 
सीता का धरती में समाना  ... 
एक ज़िद का परिणाम रहा। 

युग बदले 
सोच बदली 
परिवर्तित सोच के साथ 
हर पात्र को 
प्रश्नों के मकड़जाल में फंसा दिया सबने 
और अंततः 
... 
शूर्पणखा एक स्त्री थी,
लक्ष्मण को ऐसा नहीं करना चाहिए था 
जैसे स्वर उभरे 
रावण श्रेष्ठ हुआ 
उसके जैसे भाई की माँग हुई 
बीच की सारी कथा का स्वरुप ही बदल गया !

सतयुग हो 
 द्वापर युग हो 
या हो फिर कलयुग 
स्वर अक्सर विपरीत उठते हैं 
प्रमुख सत्य पर चर्चा होती ही नहीं 
न्याय हमेशा शोर बनकर रह जाता है 
और  ... 
एक मंथन में 
सिर्फ अमृत नहीं निकलता 
विष घट भी बाहर आता है 
एक दंश भरे जीव 
जीवन के आगे मृत्यु 
अपना तांडव दिखाती है 
देवता स्तब्ध होते हैं 
मनुष्य की कितनी बिसात !!!

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...