एक विस्फोट
... और शरीर के परखचे
इधर से उधर बिखरे हुए
सारे टुकड़े मिलते भी नहीं !!
लापता व्यक्ति
न जीवित
और ... मृत तो बिल्कुल नहीं !!
खुली आँखों के आगे
एक टुकड़े की तलाश
और इंतज़ार
आँखों की पोरों में सूख जाती है
लुप्त गंगा सी !!
लेकिन उस विस्फोट में,
जहाँ शरीर,
मन के परखचे दिखाई देते हैं
उन्हें न जोड़ पाने की तकलीफ भी
नहीं जोड़ी जा सकती !
दिनचर्या,
पेट की आग,
जीवन के कर्तव्य
और टुकड़ों को सीने की कोशिश ... !!!
अपने मन से तो कोई लापता भी नहीं होता
खुद को देखते हुए
अनजान होकर चलना
त्रासदाई है !
होकर भी ना होने की विवशता
ये होते हैं लापता परखचे
जिनकी न कोई चीख होती है
न कोई आहट
न खुशी
न दर्द
सिर्फ एक सन्नाटा ...
साल,तारीखें ... मन के अंदरूनी परखचों पर लिखे होते हैं
विस्फोट की भयानक आवाज़ें
रिवाइंड,प्ले होती रहती हैं
एक एक टुकड़े
कुछ न कुछ कहते रहते हैं
सुनते हुए बहरा बना आदमी
हँसता भी है
व्यवहारिकता भी निभाता है
लेकिन ... परखचों से मुक्त नहीं होता !!!