07 फ़रवरी, 2017

शतरंज और 'गीता" की पुनरावृति





एक नहीं,
दो नहीं ...
पूरे बत्तीस वर्ष
बिना जाने
शतरंज की खिलाडी बनी हूँ
प्यादा बनी
किश्ती बनी
घोड़े के ढाई घर को जाना ...
रानी से ख्वाब थे
लेकिन अंजान थी चाल से
ऐसे में एक पहचान के लिए
जहाँ ज़रूरत पडी
घोड़े को पाँच घर चलाया
शह और मात का मुकाबला
जीवन में था
तो  ... कर्ण होते हुए भी
कभी धृतराष्ट्र बनी
कभी अभिमन्यु
क्योंकि संजय की दिव्य दृष्टि विधाता की देन थी !

कुरुक्षेत्र के 18 दिन निर्धारित थे
शतरंज की बाज़ी भी एक समय तक चलती है
लेकिन जीवन तो वाणों की शय्या पर होता है
कोई इच्छा मृत्यु नहीं
और जब तक मृत्यु नहीं
बाज़ी चलती रहती है
ऐसे में
समयानुसार
कई नियम
अपने हक़ में बनाने होते हैं
अनिच्छा को
इच्छा का जामा पहनाना होता है
...
उँगलियाँ वहीं उठती हैं
जहाँ सत्य मर्माहत होता है
शेरावाली की जयकार से
महिषासुर का चरित्र नहीं बदलता
यह मैंने हर कदम पर महसूस किया
तो जहाँ तक सम्भव था
मैंने खुद में आदिशक्ति का आह्वान किया
जब ज़रूरत हुई
तांडव किया
फिर
ख़ामोशी से
संजय की दिव्य दृष्टि का सहारा लिया
...
गलत जानते हैं सब
कि कृष्ण ने
सिर्फ अर्जुन को गीता का उपदेश सुनाया
अपना विराट स्वरुप दिखाया
गांडीव उठाने को कहा  ...

ज़िन्दगी की आँधियों में
इस 'गीता" की पुनरावृति होती है
सुप्तावस्था में ही सही
कृष्ण का विराट रूप नज़र आता है
और एक नई जिजीविषा
उठने को प्रेरित करती है
...

5 टिप्‍पणियां:

  1. कृष्ण हैं बहुत है
    गीता और शतरंज
    कोई रंज नहीं ।

    सुन्दर ।

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  2. जीवन के विविध रंगों को समेटती आपकी लेखनी न जाने कितनों के लिए प्रेरणा का स्रोत है..

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  3. देशकाल, समय भले ही बदले लेकिन एक नए रूप में इतिहास सामने आता-जाता रहता है .....अपनी-अपनी भूमिका सब निभाते चलते हैं
    बहुत सुन्दर ...

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  4. आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
    सादर

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