प्रत्यक्ष मैं
एक पर्ण कुटी हूँ
जहाँ ऐतिहासिक महिलाओं के
कई प्रतीक चिन्ह
खग की तरह
विचरण करते हैं ...
खुद से परोक्ष मैं
नहीं जानती
मैं हूँ कौन !
क्या हूँ !
क्या है प्रयोजन मेरे होने का !
मेरी आत्मा
एक विशाल हवेली
अदालत की शक्ल लिए
बड़ी बड़ी आँखों से देखती
न्याय की देवी
और चित्रित स्त्रियाँ ...
अनवरत मौन चीखें
सिसकियाँ ...
कितनी अजीब बात है
भगवान बना दी गईं
ग्रन्थ में समा गईं
पर !!!
कोई खुश नहीं !
नाम मत पूछना
उन्हें अच्छा नहीं लगेगा
किसी के वहम को नहीं तोड़ना चाहतीं
लेकिन,
सुकून के लिए
वे हर दिन
पक्ष-विपक्ष में
अपनी दलीलें प्रस्तुत करती हैं
न्याय की देवी की भरी आँखों में
एक न्यायिक फैसला देखती हैं
और
एक उम्मीद की कुर्सी पर बैठे हुए
अदालत में ही सो जाती हैं !
कुछ तो है प्रयोजन
मेरे होने का !!!
प्रयोजन होने
जवाब देंहटाएंका होता है
बस और बस
उसे पता होता है।
सुन्दर।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2630 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
प्रभावशाली कविता।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
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