छोड़ कैसे दूँ
उस छोटे से कमरे में जाना
जहाँ
पुरानी
शीशम की आलमारी रखी है
धूल भले ही जम जाए
जंग नहीं लगती उसमें ... !
न उसमें
न उसमें संजोकर रखी गई यादों में
!
जब भी खोलती हूँ
एक सोंधी सी खुशबू
चिड़िया सी फड़फड़ाती
कभी मेरी आँखों को मिचमिचा देती है
कभी कंधे पर बैठ
कुछ सुरीला सा गाती है
कभी चीं चीं के शोर से
आजिज कर देती है ...
!
लेकिन अगर जाना छोड़ दूँ
तो
अनायास मुस्कुराने का सबब
कहीं खो जायेगा
छुप जायेगा बचपन
किसी कोहरे में
अमरुद की डालियाँ
कच्चे टिकोले
लू में कित कित खेल की ठंडक
पानीवाला आइसक्रीम
कान का उमेठा जाना
और ...
फिर से शैतानियों को दुहराना !
ये शीशम की लकड़ी से बना
यादों का ख़जाना
रुलाता है
हंसाता है
कहता है -
अगर घुटने छिले थे
तो शैतानियों का रंग भी लगाया था न सबको
अंतराक्षरी
स्टेज शो
माँ का आँचल
पापा की मुस्कुराहट
जाने क्या क्या रखा है मुझमें तुमने ही ...
सच है
जाने कितने चेहरे
कितनी खिलखिलाहटें
कितने झगड़े
कितनी शिकायतें
शीशम की आलमारी में है
इस छोटे से कमरे का वजूद
इस ख़ज़ाने से ही है
न आऊँ किसी दिन
तो कुछ खोया खोया सा लगता है
खोना तो है ही एक दिन
उससे पहले पाने का सुख क्यों खो दूँ
छोड़ कैसे दूँ
उस छोटे से कमरे में जाना !!!
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (22-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"योग से जुड़ रही है दुनिया" (चर्चा अंक-2648)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक