18 नवंबर, 2018

मन न भए दस बीस

 शरतचन्द्र का लिखा "देवदास" मेरी पहली किताब थी, जिसे मैंने डूबकर पढ़ा, और मेरा पूरा वजूद पारो' बन गया, कल्पनालोक की सीढियां उतरती पानी भरती, दौड़ती एक पुकार के साथ...देवदास$$$$ ।
फिर मेरी ज़िंदगी में आई शिवानी की "कृष्णकली" और मेरा एकांत शोख़ी से प्रवीर से बातें करने लगा ... "सुनो, यह तुम्हारी कुन्नी की साड़ी नहीं है"...
कृष्णकली की गली से निकली तो सामने खड़ा था "न हन्यते" का मिर्चा ...और अमृता बनकर मैं उससे मिलने गई । काश, मिर्चा देखता, लेकिन उससे क्या, अमृता की आहट से उसने वर्षों बाद भी उसे देख लिया ।
उम्र के साथ कहानियों का जो पड़ाव मिला हो, पात्रों में कहीं न कहीं समानता थी, शायद इसे ही कहते हैं पुनरावृति का आकर्षण, भविष्य का अद्भुत हस्ताक्षर ।
शिवाजी सामन्त की पुस्तक "मृत्युंजय" जब हाथ में आई तो कर्ण मेरी नसों में पुनः प्रवाहित होने लगा, दिनकर की "रश्मिरथी",लोगों की ज़ुबानी कहानी, सीरियल, इन सबसे एक बीजारोपण तो हो ही चुका था ।
इनदिनों, मैं एक तरफ वृंदावन में राधेकृष्ण सी चित्रित हो गई हूँ तो दूसरी तरफ कर्णसंगिनी बन कर्ण के अपमान, धैर्य की पराकाष्ठा देख रही हूँ । रसखान की पंक्तियों को गुनते हुए लगता है,"आठहुँ सिद्धि नवोनिधि को सुख नन्द की गाय चराय बिसारो"
सूरदास की कलम में उतरकर गोपिकाओं का हृदय बांचती हूँ -
"ऊधौ मन न भए दस बीस। एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस।। इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौ देही बिनु सीस। आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।। तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस। ‘सूर’ हमारै नंदनँदन बिनु, और नाहिं जगदीस।।"

 कृष्ण का प्रयोजन कृष्ण ही जानें ।




4 टिप्‍पणियां:

  1. कृष्ण जिसका ना आदि है ना अन्त। सुन्दर।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (20-11-2018) को ."एक फुट के मजनूमियाँ” (चर्चा अंक-3161) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. साहित्य में डूब कर हम जीवन की वैतरणी को तैर कर, पार करना सीख जाते हैं.
    श्रेष्ठ साहित्यकार हमारे मार्ग-दर्शक होते हैं.
    बच्चन की 'इस पार प्रिये तुम हो मधु है' ने हमको प्यार करना सिखाया था.
    और वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास पढ़कर मैंने इतिहास में ही अपना कैरियर बनाने का निश्चय किया था.
    आपके द्वारा उल्लिखित रचनाओं में मैंने 'मृत्युंजय' नहीं पढ़ी है, अब पढूंगा.

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  4. बहुत सुन्दर रचनाओं का उल्लेख किया आपने

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एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...