यूँ तो मुझे अब बात-बेबात,
कोई दुख नहीं होता,
लेकिन विष-अमृत का मंथन
चलता रहता है !
मन के समन्दर से निरन्तर,
सीप निकालती रहती हूँ,
कुछ मोती,
कुछ खाली सीपों का खेल
चलता रहता है ।
निःसन्देह,
खाली सीप बेकार नहीं होते हैं,
उसमें समन्दर की लहरों की
अनगिनत कहानियाँ होती हैं,
कुछ निशान होते हैं,
कुछ गरजते-लरजते एहसास होते हैं,
बिल्कुल एक साधारण आदमी की तरह !
अति साधारण आदमी के पास भी,
सपनों की,
चाह की प्रत्यंचा होती है,
कोई प्रत्यंचा इंद्रधनुष की तरह दिख जाती है,
कोई धुंध में गुम होकर रह जाती है !
लेकिन उस गुम प्रत्यंचा का भी,
अपना औरा होता है -
कहीं दम्भ से भरा हुआ,
कहीं एक विशेष लम्हे के इंतज़ार में टिका हुआ,
...
मैं दुखों से परे,
किसी खानाबदोश की तरह,
उस औरा को देखती हूँ,
... समझने की कोशिश में,
उसकी गहराइयों में डुबकियां लगाती हूँ
दुख से छिटककर एक अलग पगडंडी पर,
नए अर्थ तलाशती हूँ,
अवश्यम्भावी मृत्यु से पहले,
अकाट्य सत्य लिखने की कोशिश करती हूँ,
ताकि अनकहे,अनलिखे लोगों के चेहरे पर,
एक मुस्कान तैर जाए,
ख़ामोशी को कुछ देर के लिए ही सही,
ज़ुबान मिल जाये ।।।