25 जुलाई, 2019

कुछ देर के लिए ही,ज़ुबान मिल जाये ।।।





यूँ तो मुझे अब बात-बेबात,
कोई दुख नहीं होता,
लेकिन विष-अमृत का मंथन
चलता रहता है !
मन के समन्दर से निरन्तर,
सीप निकालती रहती हूँ,
कुछ मोती,
कुछ खाली सीपों का खेल
चलता रहता है ।
निःसन्देह,
खाली सीप बेकार नहीं होते हैं,
उसमें समन्दर की लहरों की
अनगिनत कहानियाँ होती हैं,
कुछ निशान होते हैं,
कुछ गरजते-लरजते एहसास होते हैं,
बिल्कुल एक साधारण आदमी की तरह !
अति साधारण आदमी के पास भी,
सपनों की,
चाह की प्रत्यंचा होती है,
कोई प्रत्यंचा इंद्रधनुष की तरह दिख जाती है,
कोई धुंध में गुम होकर रह जाती है !
लेकिन उस गुम प्रत्यंचा का भी,
अपना औरा होता है -
कहीं दम्भ से भरा हुआ,
कहीं एक विशेष लम्हे के इंतज़ार में टिका हुआ,
...
मैं दुखों से परे,
किसी खानाबदोश की तरह,
उस औरा को देखती हूँ,
... समझने की कोशिश में,
उसकी गहराइयों में डुबकियां लगाती हूँ
दुख से छिटककर एक अलग पगडंडी पर,
नए अर्थ तलाशती हूँ,
अवश्यम्भावी मृत्यु से पहले,
अकाट्य सत्य लिखने की कोशिश करती हूँ,
ताकि अनकहे,अनलिखे लोगों के चेहरे पर,
एक मुस्कान तैर जाए,
ख़ामोशी को कुछ देर के लिए ही सही,
ज़ुबान मिल जाये ।।।

09 जुलाई, 2019

राजनीति थी





राजनीति थी,
श्री राम ने रावण से युद्ध किया,
सीता को मुक्त कराया,
फिर अग्नि परीक्षा ली
और प्रजा की सही गलत बात को
प्राथमिकता देते हुए वन भेज दिया !
फिर कोई खबर नहीं ली
कि सीता जीवित हैं
या पशु उनको खा गए,
या जब तक जिंदा रहीं,
निर्वाह के लिए,
उनको कुछ मिला या नहीं ।
क्या सीता सिर्फ पत्नी थीं ?
और राजा के न्याय के आगे सब विवश थे ?
...
राजनीति थी,
श्री कृष्ण ने पाँच ग्राम के विरोध में,
महाभारत का दृश्य दिखाया ।
द्रौपदी की लाज रखी,
लेकिन जिन मुख्य अभियुक्तों ने,
द्रौपदी को दाव पर लगाया,
उनको कोई सज़ा नहीं दी !
(बात समय की नहीं, प्रत्यक्षतः कृष्ण की है)
सत्य को पहले से जानते हुए,
युद्ध के पूर्व कर्ण को सत्य बताया,
प्रलोभन दिया ...
सूर्यग्रहण एक ईश्वर की राजनीति थी,
महाभारत की जीत,
एक कुशल राजनीति थी !
हर युग,हर शासन काल में
कुशल,कुटिल राजनैतिक दावपेंच रहे हैं,
कोई राजनेता दूध का धुला नहीं होता,
हो ही नहीं सकता,
विशेषकर विरोधी पक्ष के लिए,
हत्या,अपहरण, अन्याय ,अधर्म
हर काल में हुए हैं,
होते रहेंगे,
क्योंकि कभी प्रजा बाध्य करती है,
कभी खुद राजा बाध्य होता है !
इसीके मध्य कोई उंगली उठाता है,
कोई उंगली तोड़ देता है,
कहने को तो हर कार्य का
कोई न कोई प्रयोजन है ही,
और जो होना है,
वह होता ही है ...
सम्भवतः यही हो होनी की राजनीति !!!

03 जुलाई, 2019

सर से पाँव तक - सिर्फ बारिश




काश मैं ही होती मेघ समूह,
गरजती, कड़कती बिजली ।
छमछम,झमाझम बरसती,
टीन की छतों पर,
फूस की झोपड़ी पर,
मिट्टी गोबर से लिपे गए आंगन में ।
झटास बन,
छतरी के अंदर भिगोती सबको,
नदी,नाले,झील,समंदर
सबसे इश्क़ लड़ाती,
गर्मी से राहत पाई आँखों में थिरकती,
फूलों,पौधों,वृक्षों की प्यास बुझाती,
किसी सूखी टहनी में,
फिर से ज़िन्दगी भर देती ।
बच्चों की झुंड में,
कागज़ की नाव के संग,
आंखमिचौली खेलती,
छपाक छपाक संगीत बन जाती,
गरम समोसे,
गर्मागर्म पकौड़े खाने का सबब बनती,
किसी हीर की खिलखिलाती हँसी बनती,
बादल बन जब धीरे से उतरती,
मस्तमौलों का हुजूम,
चटकते-मटकते भुट्टों के संग,
शोर मचाता ।
कुछ चिंगारियाँ मेरी धुंध लिबास पर
छनाक से पड़ती,
सप्तसुरों में,
कोई मेघराग गाता ...
किसी अस्सी,नब्बे साल की अम्मा के
पोपले चेहरे पर ठुनकती,
वह जब अपने चेहरे से मुझे निचोड़ती,
तब मैं बताती,
इमारत कभी बुलन्द थी ।
बाबा के बंद हुक्के का धुआं,
राग मल्हार गाता,
किसी बिरहन की सोई पाजेब,
छनक उठती
काश, मैं बादलों का समूह होती,
झिर झिर झिर झिर बारिश होती
सर से पाँव तक - सिर्फ बारिश ।

01 जुलाई, 2019

मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है ।




दिल करता है,
आगे बढ़ूँ और मुखौटे उतार दूँ,
कभी-कभी उतारा भी है,
लेकिन-
बहुत जटिल प्रक्रिया है ये,
मुखौटे लगनेवाले,
असली चेहरों को लहूलुहान करने की कला में,
निपुण होते हैं ।
और ... दुनिया उन पर ही विश्वास करती है,
शायद करने को,
या चुप रहने को बाध्य होती है ।

लेकिन ये मुखौटे,
सिर्फ गंदे,भयानक ही नहीं होते,
वे भी होते हैं,
जो इन मुखौटों के आगे
हम चाहे-अनचाहे लगा लेते हैं,
कभी मुस्कुराता हुआ,
कभी निर्विकार सहजता का,
दूरी महसूस करते हुए भी,
एक अपनत्व का !!

दिल करता है,
मुखौटे उतार दूँ,
झूठमूठ की सहजता खत्म कर दूँ,
लेकिन ...
बिना मुखौटों के चलना
मुश्किल ही नहीं,
नामुमकिन है ।

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...