दिल करता है,
आगे बढ़ूँ और मुखौटे उतार दूँ,
कभी-कभी उतारा भी है,
लेकिन-
बहुत जटिल प्रक्रिया है ये,
मुखौटे लगनेवाले,
असली चेहरों को लहूलुहान करने की कला में,
निपुण होते हैं ।
और ... दुनिया उन पर ही विश्वास करती है,
शायद करने को,
या चुप रहने को बाध्य होती है ।
लेकिन ये मुखौटे,
सिर्फ गंदे,भयानक ही नहीं होते,
वे भी होते हैं,
जो इन मुखौटों के आगे
हम चाहे-अनचाहे लगा लेते हैं,
कभी मुस्कुराता हुआ,
कभी निर्विकार सहजता का,
दूरी महसूस करते हुए भी,
एक अपनत्व का !!
दिल करता है,
मुखौटे उतार दूँ,
झूठमूठ की सहजता खत्म कर दूँ,
लेकिन ...
बिना मुखौटों के चलना
मुश्किल ही नहीं,
नामुमकिन है ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-07-2019) को "संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ी है " (चर्चा अंक- 3384) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तब तो मुखौटे ही मुखौटों से मिल रहे हैं..असली आदमी तो कभी मिलता ही नहीं आपस में...
जवाब देंहटाएंइसमें कोई शक़ नहीं...मुखौटे ज़रूरी हैं...क्योंकि हम अपना अप्रूवल दूसरों से लेते हैं...बढ़िया रचना...
जवाब देंहटाएंचिट्ठाकारी दिवस की शुभकामनाएं। सुन्दर रचना। जमाना मुखौटोंं का है :)
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गज़ब की रचना...शब्द और भाव दोनों अद्भुत...
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