13 दिसंबर, 2019

तुम सूरज ही बनना




बेटी,
यदि तुम सूरज बनोगी
तो तुम्हारे तेज को लोग बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे,
वे ज़रूरत भर धूप लेकर,
तुम्हारे अस्त होने की प्रतीक्षा करेंगे ।
सुबह से शाम तक
एक ज़रूरत हो तुम ।
जागरण का गीत हो तुम,
दिनचर्या का आरम्भ हो तुम,
गोधूलि का सौंदर्य हो तुम,
घर लौटने का संदेश हो तुम ...
फिर भी,
उन्हें तुम्हारे अस्त होने का इंतज़ार रहता है,
ताकि वे पार्टियां कर सकें,
आराम कर सकें,
गहरी नींद में चिंता मुक्त हो सकें ...
पर,
तुम सूरज बनकर,
नीड़ में सिहरन पैदा करती हो,
उड़ने का संदेश देती हो,
प्रकृति में ऊर्जा बन घूमती हो
लेकिन कहा न,
सूरज मत बनो,
लोगों के द्वारा अस्त होने की चाह के आगे
घटाओं की तरह बरसोगी,
और लोग उसमें भी अपना फायदा देखेंगे,
नुकसान होने पर तुम्हें दोष देंगे !
बेटी,
तुम सिर्फ संहार करो,
फिर मूर्ति बन जाओ,
सजो,संवरो,
विसर्जित हो जाओ
आह्वान का इंतज़ार करो,
खुद आने,
भ्रमण करने,
धन धान्य का सुख देने की मत सोचो ।
बेटी,
जलकर,मरकर तुम्हारी आत्मा
जहाँ, जिस हाल में हो,
मेरी इस बात को गहराई से सोचो,
मैं भी बेटी हूँ,
सूरज बनने की चाह में झुलसी हूँ,
अपनी पहचान को बनाये रखने की खातिर
पूरब से पच्छिम तक ही नहीं दौड़ी हूँ,
उत्तर और दक्षिण को भी समेटा है ।
देखा है दुर्गा बनकर,
संहार के लिए अपनी ही मूर्ति का आह्वान करके,
आसपास सबकुछ निर्विकार रहता है ... !
यदि इस निर्विकारता के आगे,
तुम स्वयं अपना ढाल बनने का सामर्थ्य रख सकती हो,
तो ... सूरज बनना ।
क्योंकि असली सच है,
कि, सूरज कभी अस्त नहीं होता,
अस्त होने का भ्रम देकर
कहीं और उदित होता है ।
तो बेटी,
तुम सूरज ही बनना और जो राह रोके,
उसे जलाकर राख कर देना ।।

05 दिसंबर, 2019

हादसे स्तब्ध हैं




हादसे स्तब्ध हैं, ... हमने ऐसा तो नहीं चाहा था !
घर-घर दहशत में है,
एक एक सांस में रुकावट सी है,
दबे स्वर,ऊंचे स्वर में दादी,नानी कह रही हैं,
"अच्छा था जो ड्योढ़ी के अंदर ही 
हमारी दुनिया थी"
नई पीढ़ी आवेश में पूछ रही,
"क्या सुरक्षित थी?"
बुदबुदा रही है पुरानी पीढ़ी,
"ना, सुरक्षित तो नहीं थे, लेकिन ...,
ये तो गिद्धों के बीच घिर गए तुम सब !
पैरों पर खड़े होने की चुनौती क्या मिली,
वक़्त ही फिसल गया सबके आगे ।
मुँह अंधेरे ही तुम सब निकलते हो,
रात गए तक आते हो, 
इसका तो कोई प्रबन्ध हो सकता न ?
पहले भी दस से पांच तक काम होते थे,
स्कूल चलता था,
घरों में पार्टियां भी होती थीं,
पर एक वक़्त मुकर्रर था ।
अब तो कोई निश्चित समय ही नहीं रहा ।।
महानगरों में तो सड़कें रात भर जागती ही थीं,
अब तो गली,कस्बे भी जागते हैं,
जाने कैसी होड़ है ये !"
"सब करते हैं, 
सब आते हैं असुरक्षित"
"वही तो !
सबसे पहले इसे दुरुस्त करना होगा,
बिना नम्बर कोई गाड़ी बाहर न निकले,
कहीं कोई देर तक झुंड में बैठा हो,
तो लाइसेंस की तरह 
इस वजह की भी पूछताछ हो,
नाम,तस्वीर ले लिया जाए ।
जिस तरह आतंकी गतिविधियों पर नज़र रखते हैं,
नज़र रखने के उपाय होते हैं,
वैसे ही संदिग्ध टोली पर भी नज़र हो ।"

अन्यथा -  किसी आक्रोश का कोई अर्थ नहीं ।

मौन साक्षी मैं !




मैं वृक्ष,
वर्षों से खड़ा हूँ
जाने कितने मौसम देखे हैं मैंने,
न जाने कितने अनकहे दृश्यों का,
मौन साक्षी हूँ मैं !
पंछियों का रुदन सुना है,
बारिश में अपनी पत्तियों का नृत्य देखा है,
आकाश से मेरी अच्छी दोस्ती रही है,
क्योंकि धरती से जुड़ा रहा हूँ मैं ।
आज मैंने अपने शरीर से वस्त्ररूपी पत्तियों को गिरा दिया है,
इसलिए नहीं कि अब मैं मौसम के थपेड़े नहीं झेल सकता !
बल्कि इसलिए, कि -
मैं अपनी जगह नहीं बदल सकता !
और इस वजह से
जाने कितने आतताई,
मेरी छाया में,
अपनी कुटिलता का बखान करते रहे हैं ।
सुनी है मैंने चीखें,
उन लड़कियों की,
जिन्होंने मेरी डाली पर डाला था झूला,
सावन के गीत गाये थे !!!
आँधी की तरह मैं गरजता रहा,
पर कुछ नहीं कर सका
अंततः
भीतर ही भीतर शुष्क होता गया हूँ,
पत्तियों को भेज दिया है धरती पर,
ताकि उनकी आत्मा को एक स्पर्श मिल जाये
और मुझे ठूंठ समझ,
कोई मेरे निकट न आये ...

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...