बेटी,
यदि तुम सूरज बनोगी
तो तुम्हारे तेज को लोग बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे,
वे ज़रूरत भर धूप लेकर,
तुम्हारे अस्त होने की प्रतीक्षा करेंगे ।
सुबह से शाम तक
एक ज़रूरत हो तुम ।
जागरण का गीत हो तुम,
दिनचर्या का आरम्भ हो तुम,
गोधूलि का सौंदर्य हो तुम,
घर लौटने का संदेश हो तुम ...
फिर भी,
उन्हें तुम्हारे अस्त होने का इंतज़ार रहता है,
ताकि वे पार्टियां कर सकें,
आराम कर सकें,
गहरी नींद में चिंता मुक्त हो सकें ...
पर,
तुम सूरज बनकर,
नीड़ में सिहरन पैदा करती हो,
उड़ने का संदेश देती हो,
प्रकृति में ऊर्जा बन घूमती हो
लेकिन कहा न,
सूरज मत बनो,
लोगों के द्वारा अस्त होने की चाह के आगे
घटाओं की तरह बरसोगी,
और लोग उसमें भी अपना फायदा देखेंगे,
नुकसान होने पर तुम्हें दोष देंगे !
बेटी,
तुम सिर्फ संहार करो,
फिर मूर्ति बन जाओ,
सजो,संवरो,
विसर्जित हो जाओ
आह्वान का इंतज़ार करो,
खुद आने,
भ्रमण करने,
धन धान्य का सुख देने की मत सोचो ।
बेटी,
जलकर,मरकर तुम्हारी आत्मा
जहाँ, जिस हाल में हो,
मेरी इस बात को गहराई से सोचो,
मैं भी बेटी हूँ,
सूरज बनने की चाह में झुलसी हूँ,
अपनी पहचान को बनाये रखने की खातिर
पूरब से पच्छिम तक ही नहीं दौड़ी हूँ,
उत्तर और दक्षिण को भी समेटा है ।
देखा है दुर्गा बनकर,
संहार के लिए अपनी ही मूर्ति का आह्वान करके,
आसपास सबकुछ निर्विकार रहता है ... !
यदि इस निर्विकारता के आगे,
तुम स्वयं अपना ढाल बनने का सामर्थ्य रख सकती हो,
तो ... सूरज बनना ।
क्योंकि असली सच है,
कि, सूरज कभी अस्त नहीं होता,
अस्त होने का भ्रम देकर
कहीं और उदित होता है ।
तो बेटी,
तुम सूरज ही बनना और जो राह रोके,
उसे जलाकर राख कर देना ।।