एक युद्ध चल रहा है
घर में रहकर
खुद को बचाने का ।
साधना है खुद को,
याद करना है उन पलों को
जिसमें हम बिना शरमाये
धूल में खेलते थे,
मिट्टी में पानी मिलाकर
बन जाते थे कलाकार ।
बालू की ढेर पर बैठकर
घरौंदे बनाते थे ।
आटे की चिड़िया बनाकर
लकड़ी,कोयले की आंच पर सेंककर
किसी आविष्कारक की तरह
उसे अपनी थाली में रखते थे ।
हवाई चप्पल में ही स्कूल जाते थे,
जूते मोजे और स्कूल ड्रेस में
हम सबसे अलग होते थे ।
ये अलग होने का नशा इतना बढ़ा
कि हमारे आंगन सीमेंटेड हो गए,
लोगों से मिलने का अंदाज बदलने लगा
और अनाजों का गोदाम
शिकायतों से भरने लगा ...
शिकायतों के दाने गौरैया भला क्या चुगती,
वह भी गुम होने लगी,
यूँ कहें,
उड़ते भागते
वह उस जगह की तलाश में निकल गई
जहाँ अनाजों के ढेर बेख़ौफ़ पड़े रहते थे/हैं ।
विदेश जाने की होड़ लगी,
समानता,असमानता की दीवारें गिरने लगीं,
सारी पहचान गडमड हो गई
सारे तौर तरीके खत्म हो गए ।
ये क्यों,वो क्यों के तर्क
आग की लपटों की तरह झुलसाने लगे,
सबको एक दूसरे से दूर होने के बहाने मिल गए
चेहरों की कौन कहे
नाम तक भुला दिए गए ।
...वक़्त हैरान
शहर हैरान
घरों की भरमार हुई
पर कहीं कोई घर नहीं रहा ।
सड़क,ट्रेन,मॉल,समुद्री किनारे,
हवाई जहाज,होटल के कमरे,
पब,...रुतबे भरे ठिकाने हो गए ।
सरेआम अश्लीलता का वो दौर चला
कि प्रकृति क्षुब्ध हो गई ।
सुनामी,भूकम्प,जैसी प्राकृतिक आपदा से
कोई खास फर्क नहीं पड़ा
तब मानव की गलतियों ने
एक वायरस को
अनजाने ही सही
बढ़ावा दिया ।
त्राहिमाम के आगे वही घर आया,
जिसे सबने छोड़ दिया था,
घर के खाने से मुंह फेरकर
बाहर के खाने में स्वाद ढूंढने लगे थे ।
आज डर ने घर दिया है
सबको मिलजुलकर रहने का मौका दिया है
कच्ची अधसिंकी रोटी में स्वाद दिया है
हम कहाँ गलत थे,
यह सोचने का मौका दिया है ।
सफाई,अनुशासन का अर्थ बताया है
जो घर में रहकर इंतज़ार करते हैं
अकेले खाते हैं,
उनके दर्द को समझाया है ।
यह वक़्त यूँ ही नहीं टलेगा,
ज़िद को खत्म करके ही विदा लेगा ।
अब हम पर है
कि हम समझते हैं
या ज़िद को ही पकड़कर रहना चाहते हैं ।
सार्थक गवेषणा
जवाब देंहटाएंवर्तमान स्थितियों पर इससे सटीक और कुछ लिखा कहा नहीं जा सकता दीदी। सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआशा है आप स्वस्थ होंगी। ख्याल रखें।
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक,सुन्दर,सार्थक एवं समसामयिक सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!!!