11 मई, 2020

घर से बाहर





कहने को तो हम निकल गए थे
घर से बाहर की दुनिया में
क्योंकि,खुद को आत्मनिर्भर बनाना था
अपने आप में कुछ बनना था
उठानी थी जिम्मेदारियां ...
हर स्वाभाविक भय को
माँ की आलमारी में रख
चेहरे पर निर्भीकता पहनकर
निकल गए थे हम घर से
शहर से
दूर ,बहुत दूर
छुट्टियों में आने के लिए!
रोज रोज की दुश्वारियां
भूखे रह जाने की कवायद
अपशब्दों को घूंट घूंट पचा लेने की कशमकश से
हम लड़ते रहे
और माँ की आवाज़ सुनते
भर्राए गले पर नियंत्रण रखते हुए
कह देते थे
बाद में बात करते हैं,
कुछ काम आ गया है ..."
उस एक पल की थरथराहट में
माँ सबकुछ सुन लेती थी,
समझ लेती थी
पर मिलने पर
सर सहलाते हुए
न उसने कभी कुछ पूछा
न हमने कुछ कहा ।
इस धक्कमधुक्की की दौड़ में
एक दिन एहसास हुआ
माँ भी तो आ गई थी अपना घर छोड़कर
एक नई दुनिया में
सामर्थ्य से अधिक खटती थी
शिकायतों,उपेक्षा के अपशब्दों को
पचा लेती थी
और अपनी माँ के गले लगकर कहती थी
सब ठीक है ...
पूरी ज़िंदगी की भागदौड़ का
यही सार मिला,
घर छूट जाता है एक दिन
यादों में रहता है खड़ा
और सारी उम्र
एक घर की तलाश रहती है !

9 टिप्‍पणियां:

  1. हम सबकी कहानी... माँ है क्या माँ होकर ही जान पाई

    आपके लेखन को नमन

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  2. माँ लेकिन सब समझ लेती है
    पढ़ लेती है बीच की रेखायें।

    लाजवाब।

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 11 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. माँ बिन कहे ही समझ लेती है सब, सही है, वह माँ है जो एक अदृश्य तंतु से जुड़ी है संतान से

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  5. मां के चरणों की धुलि में, नत शीश झुकाते है दिनकर,
    वंदन करते हम सब प्रतिपल, आशीष ग्रहण करते करूणाकर ।
    मां को समर्पित बहुुत ही अप्रतिम काव्य है आपका । सुंदर सार्थक एवं सारगर्भित सृजन

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  6. मां की अनुभूति खुशी और वेदना दोनों में महसूस करते हैं, उत्कृष्ट रचना

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  7. और माँ की आवाज़ सुनते
    भर्राए गले पर नियंत्रण रखते हुए
    कह देते थे
    बाद में बात करते हैं,
    कुछ काम आ गया है ..."
    उस एक पल की थरथराहट में
    माँ सबकुछ सुन लेती थी,
    समझ लेती थी
    बहुत ही लाजवाब रचना बुनी है आपने सबके मन की बात...
    सचमुच इस दौड़भाग और भर्राए गले को जानकर भी माँ कुछ नहीं कहती छोड़ती है हमें हमारी मजबूती के लिए...
    बहुत ही नायाब सृजन।

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