27 अगस्त, 2020

राधा


 



मैं राधा
माता कीर्ति
पिता वृषभानु की बेटी !
कृष्ण की आदिशक्ति
नंदगाँव और बरसाने की प्रेमरेखा !

मैं कृष्ण की आराधिका थी
या उनकी बाँसुरी
यमुना का किनारा
या कदम्ब की डाली
गोकुल की पूरी धरती
या माखन
उनके मुख में चमकता ब्रह्माण्ड
या उनको बाँधी गई रस्सी
या !!! ...
जो भी मान लो
मैं थी - तो कृष्ण थे
कृष्ण थे - तो मैं !
०००
जिस दिन कृष्ण ने जन्म लिया
उस दिन मैं अमावस्या थी
कारागृह के द्वार मैंने ही खोले थे
टोकरी की एक एक बुनावट में मैं थी
मूसलाधार बारिश की बूंदों में मैं थी
यमुना की उठती हिलोरों में मैं थी
पाँव छूकर मैंने ही अपने होने का हस्ताक्षर किया था ...
बरसाने में जन्म लेकर मैं
गोकुल की प्रतीक्षित देहरी बन गई !
माँ यशोदा के आँगन में कृष्ण के जो नन्हें पाँव मचले थे
उसके मासूम निशानों में मैं तिरोहित हो गई ....
रास की इस पहेली को समझ सका है कोई !?
०००
सिर्फ ज्ञान ... मात्र एक भ्रम है
जो मान लेता है खुद को सर्वस्व !
इसीलिए कृष्ण ने उद्धव को अपने ज्ञान का प्रतिरूप बनाकर
अहम से परे
मोह में स्वयं को उलझाकर
हर रिश्ते के मध्य प्रेम क्या है
यह समझने के लिए भेजा
क्योंकि, गीता सुनाने के लिए
उसे समझने के लिए
पहले प्रेम और रिश्तों को जीना होता है
पाने से कहीं अधिक खोना पड़ता है !!
गोपिकाओं के निकट
उद्धव के शरीर में
दरअसल कृष्ण ने स्वयं को प्रस्तुत किया
जहाँ प्रत्येक गोपिका में मैं समाहित थी
कृष्ण ज्ञान बनकर प्रज्ज्वलित थे
मैं प्रेम की मूक आँखों से बरस रही थी
तभी तो गोकुल में कृष्ण का एक रूप ठिठक गया
रास के इस रहस्य को समझ सका है कोई !?
०००
मिट्टी का स्वर्णिम शरीर थे वासुदेव,
देवकी
नंदबाबा,
यशोदा
रुक्मिणी,
सत्यभामा
बलराम,
सुदामा,
रसखान,
सूरदास
मीरा ....
मैं थी मिट्टी
जिसमें अपनी आँखों का पानी मिलाकर
कृष्ण ने मुझे बनाया - राधा !!!
साधारण स्तर पर
हर किसी ने सोचा कृष्ण ने मुझे छोड़ दिया ...
यदि यही बाह्य सत्य था
तो देवकी और मथुरा के लिए
वासुदेव ने
कृष्ण को तूफानों के मध्य जो गोकुल पहुँचाया वह क्या था ?
माँ यशोदा
पूरे गोकुल को छोड़कर
अधर्म के नाश के लिए
कृष्ण जो मथुरा पहुँचे
वह क्या उनका स्वार्थ था ?
यदि साधारण
या असाधारण रूप से ऐसा नहीं होता तब ???
तब क्या होता ?
क्या होना चाहिए था ? 
रास के इस त्याग को समझ सका है कोई !?
०००
कुरुक्षेत्र के मैदान में
जिस विद्युत गति से रथ को दौड़ाया कृष्ण ने
उसकी रास मैं थी
कृष्ण के अकेलेपन की सम्पूर्ण वेदना मैं थी
उनके विराट स्वरुप का चमत्कृत रूप मैं थी
उनके और द्रौपदी के मध्य चीर मैं थी
अनहोनी अपनी जगह थी
उसकी सकारात्मक होनी मैं थी
इस अद्भुत रास को समझ सका है कोई !?
०००
मैं बड़ी भी हूँ
छोटी भी हूँ
ज्ञानी भी हूँ
अज्ञानी भी मैं हूँ
शरीर कृष्ण का
और आत्मा हूँ राधा की
कृष्ण हैं मेरे रोम रोम में
तो कृष्ण में लय राधा भी है
तुम सबको किस बात का विस्मय है ?!
तुम नहीं हो सकते कृष्ण
कभी नहीं मिल सकती कोई राधा
जिस रास का अर्थ तुम समझ ना सके
वहाँ कैसा रिश्ता
कौन सा त्याग
और कैसी बाधा !
सोचो खुद में
और कहो जरा
इस रास को समझ सका है कोई !?
०००
हमारा एकांत
हमारा अध्यात्म था
हमारा रास
जीवन का सार था
अतिरिक्त कल्पना तो मानव मन की उत्पत्ति है !
विवाह में सिर्फ सात वचन नहीं होते
जीवन के समस्त मंत्र इसकी समिधा होते हैं
जहाँ सिर्फ दो व्यक्ति नहीं मिलते
पूरा संसार एक होता है
राधेकृष्ण संसार की एकता का प्रतीक हैं ...
वसुधैवकुटुंबकम "रास" है
गहरे उतरो 
ज्ञान और प्रेम के 
अथाह सिंधु में  
युगों से सीप में 
प्रतीक्षारत पड़ा है
प्रीत की कोख से जन्मा वह मोती
उसे निकालो
और पा लो अर्थ 
राधेकृष्ण का 
हरे कृष्णा, हरे रामा का।

11 अगस्त, 2020

क्या खोया,क्या पाया !

 


(लिखती तो मैं ही गई हूँ, पर लिखवाया सम्भवतः श्री कृष्ण ने है )


भूख लगी थी,

मगर रोऊं ...

उससे पहले बाबा ने टोकरी उठा ली !

घनघोर अंधेरा,

मूसलाधार बारिश,

तूफान,

और उफनती यमुना ...

मैं शिशु से नारायण बन गया

घूंट घूंट पीता गया बारिश की बूंदों को,

और कृष्णावतार का दूसरा चमत्कार हुआ

अपनी तरंगों से बादलों को छूती यमुना

सहसा शांत हो गईं

मुझे देखा,

श्यामा हुई,

गोकुल को जाने की राह बन गई

मैं जा लगा

मइया यशोदा के उर से,

मेरी भूख क्या मिटी

मैं गोपाल, कन्हैया, कान्हा ...

जाने कितने नामों से सज गया

उत्सव का नाद मेरे कानों में गूंजा

झूल रहे थे वंदनवार,

नंद बाबा के द्वार

मां की गोद क्या मिली

मुझे मेरा खोया वह ब्रह्मांड मिल गया

जिसे छोड़ आया था मैं

या यों कहूं

जो मुझसे छूट गया था

मथुरा के कारागृह में ...

गोकुल में मिला तभी,

हां, हां तभी

मैं सुरक्षित रहा

पूतना के आगे

कर सका कालिया मर्दन

उठा सका गोवर्धन ......

तो ईश्वर कौन था ?

मैं ?

या सात नवजात बच्चों की हत्या देखकर भी

मुझे जन्म देनेवाली मां ?

संतान को जीवित रखने का साहस जुटाकर

मुझे गोकुल ले जानेवाले पिता वासुदेव ?

पुत्री का दान देकर मुझे स्वीकार करनेवाले

नंद बाबा ?

या अपने पयपान से

मेरी बुभुक्षा को तृप्त कर

मुझे संजीवित करनेवाली

मां यशोदा ?

यह कौन तय करेगा

क्योंकि मैं स्वयं अनभिज्ञ हूँ ...

इस गहन ज्ञानागार में मैंने जाना ...

तुम क्या लेकर आए जिसे खो दोगे ?

तुम्हारा जब कुछ था ही नहीं

तो किसके न होने के दुख से रोते हो ?

मिट्टी से भरे मेरे मुख में

मां ने ब्रह्मांड देखा था

या कर्तव्यों का ऋण चुकाते हुए,

तिल तिलकर मेरे मरने का सत्य ...

किसी ग्रंथकार या लेखाकार को नहीं मालूम

यह सारा कुछ तो

मेरे और मेरी जीवनदायिनी के मध्य घटित

हर छोटे - बड़े संदर्भों की कथा है

जिसे वह जानती है

या फिर मुझे पता है.....

मेरे मथुरा प्रस्थान पर

विस्मृति का स्वांग ओढ़ना

उसकी वैसी ही विवशता थी

जैसे गोकुल का चोर,

ब्रज का किशोर

और फिर,

द्वारकाधीश बनना मेरी विवशता रही ...

मैं !

जिसे सबने अवतार माना,

अबतक नहीं जान पाया

कि मैंने क्या खोया, क्या पाया !

पर एक सत्य है

जो मुझे प्रिय है ...

गोकुल, यमुना, वृंदावन की तरह

मां की फटकार और

मुंह से लगे चुगलखोर माखन की तरह

पीताम्बर, मोरपंख और गोधन की तरह

बरसाने, राधा, बंसी और मधुबन की तरह

जिसके दर्शन

हर बरस होते हैं मुझे

भाद्रपद, कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र में पड़ी

अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि को

चहुंओर बिखरे

अपने जन्मोत्सव के उल्लास में,

ममता से भरी खीर में,

प्रेम की दहीहांडी में,

गलियों के बीच मचे हुड़दंग में...

उस रात के हर प्रहर में

मैं याद रखकर भी भूल जाता हूं

कि सदियों पूर्व क्या हुआ था

इस रात को ...

और सुनता हूं

मुग्ध होकर,

तुम्हारे घर में गूंजते

अपने लिए गाए जा रहे

क्षीरसागर में डूबे

सोहर के मीठे, सरल शब्दों को

और अपने जन्म की खुशी को जीता हूं।

और अपने जन्म की खुशी को जी भर के पीता हूं,

जी भर के जीता हूं

 ...कि यह रात!फिर आएगी 

मगरपूरे एक बरस के बाद।

एहसास

 मैंने महसूस किया है  कि तुम देख रहे हो मुझे  अपनी जगह से । खासकर तब, जब मेरे मन के कुरुक्षेत्र में  मेरा ही मन कौरव और पांडव बनकर खड़ा रहता...