गोकुल की वह सुबह,
सोहर के बीच
माँ यशोदा ने जब मुझे कसकर गले लगाया
उनके बहते आँसुओं को
अपनी नन्हीं हथेली पर महसूस करते हुए
मेरा आँखें माँ देवकी को
वासुदेव बाबा को ढूंढ रही थीं ...
समय की मांग से परे
मैं उसी वक्त चाह रहा था विराट रूप लेना
अपने सात भाईयों की हत्या
माँ देवकी के गर्भनाल की असह्य
निःशब्द पीड़ा को अर्थ देना
कंस को उसी कारागृह की दीवार पर
उसी की तरह पटकना... !!!
लेकिन माँ यशोदा के हिस्से लिखी बाल लीला
सूरदास के अंधेरे में उजास भरने के लिए
मुझे चौदह वर्षों का गोकुलवास मिला था !!
ईश्वरीय चमत्कार की चर्चा छोड़ दें
तो न मेरे आगे माँ देवकी की व्यथा थी
न उनकी गोद में मैं !!
मेरे आगे भी एक निर्धारित अवधि थी
जिसमें मुझे गोकुल का सुख बनना था,
प्रेम बनना था
और फिर सबकुछ छोड़कर
मथुरा लौटना था
उलाहनों,आँसुओं की थाती लिए !
बिना भोगे,
बिना जिए,
कौन मेरे करवटों की व्याख्या करेगा ?
कैसे कोई जानेगा
कि जब मैं माँ देवकी के गले लगा
तो मेरा रोम रोम माँ यशोदा के स्पर्श से भरा था !
माँ देवकी भी सिहर उठी थीं ...
दो बूंद आंसू गिरे थे
लेकिन होनी के इस अन्याय को स्वीकार करते हुए
उन्होंने मेरे सर पर हाथ रख दिया था
ताकि मैं मथुरा के साथ न्याय कर सकूँ ... !!!
मैंने क्या न्याय या अन्याय किया
_ नहीं जानता !
मेरे मुख में ब्रह्मांड था या नहीं
- मुझे ज्ञात नहीं
पर जो अन्याय मेरे जीवन में होनी ने तय किया,
उसके आगे मेरा वजूद गीता बना ...
अगर ऐसा नहीं होता,
तो मैं जी नहीं पाता !
तुमसब भले ही मुझे द्वारकाधीश कहो
पर अपने एकांत में
मैं अपना ही अर्थ ढूंढता हूँ ।
रश्मि प्रभा