चिड़िया ने चिड़े से कहा -
सुना है, लोग बदल गए हैं
और उनकी कोशिश रही है हमें बदल देने की !!!
पहले सबकुछ कितना प्राकृतिक,
और स्वाभाविक था,
है न ?
हम सहज रूप से मनुष्य के आंगन में उतरते थे,
उनकी खुली खिड़कियों पर
अपना संतुलन बनाते थे ।
खाट पर फैले अनाज से
हमारी भूख मिट जाती थी
चांपाकल के आसपास जमा हुए पानी से
प्यास बुझ जाती थी...
बदलाव का नशा जो चढ़ा मनुष्यों पर
आंगन गुम हो गया,
बड़े कमरे छोटे हो गए,
मुख्य दरवाज़े के आगे
भारी भरकम ग्रिल लग गए !
मन सिमटता गया,
भय बढ़ता गया,
अड़ोसी पड़ोसी की कौन कहे,
अपने चाचा,मामा, मौसी,बुआ की पहचान खत्म हो गई !!
बड़ी अजीब दुनिया हो गई है
मनुष्यों की भांति हमारा बच्चा भी
अपनी अलग पहचान मांग रहा है
निजी घोंसले की हठ में है ...!!!
समझाऊं तो कैसे समझाऊं
परम्परा का अर्थ कितना विस्तृत था
सही मायनों में -
वसुधैव कुटुंबकम् था !"
रश्मि प्रभा