02 फ़रवरी, 2024

तराशी हुई सुबह

साड़ी के पालने में झूलते हुए

उसने कर्कश चीखें सुनी थी 

मां की गोद में जाकर

उसकी आंखों से बहता पानी देखा था 

(तब आंसू शब्द से परिचित नहीं थी !)

अजीबोगरीब शोर के मध्य

कभी कहकर, कभी दबी हिचकियों में

मां ने बहुत कुछ बताया उसे,

साथ ही सीख की लोरियां सुनाई ...

जाने कितने ज़ख्म थे मां के चेहरे

और शरीर पर !!!

फिर भी वह बड़बड़ाती रहती थी थपकियों में,

"स्त्री को बर्दाश्त करना होता है

घर को घर बनाना पड़ता है

बाहर की दुनिया किसी जानवर से कम नहीं

तो घर से बाहर पैर निकालने जैसे आक्रामक विचारों से

खुद को अछूता रखना ही स्त्री का धर्म है !

पापा भी हाथ उठाते थे मां पर,

दादा दादी पर

इसलिए यह कोई खास बात नहीं है बेटी ..."

टुकुर-टुकुर मां को देखते सुनते,

उसके मन-मस्तिष्क में पड़े ज़ख्म उभरे

उसकी पारंपरिक सीख के आगे भी 

उसने सुना 

और सुनती गई ...

"बेटी, 

अपने अस्तित्व को 

किसी भी अस्तित्व से

कभी कम मत समझना !

इसके पहले कि किसी दिन 

कोई हाथ तुम तक बढ़े

- हाथ बढ़ाकर उसे रोकना ।

वर्षों से चली आई 

थप्पड़ खाने की सनातन प्रथा को

सिर्फ़ रोकने की ही नहीं

तोड़ने की क्षमता रखना !

... दुनिया क्या कहेगी !!!'

यह क्षण भर के लिए मत सोचना ।

दुनिया वही कहती है,

जिस मानसिकता में वह जीती है।"


अक्सर लोगों को कहते सुना है,

बच्चे वही सीखते हैं, जो देखते हैं

उसने इसे गलत साबित कर दिया  

क्योंकि उसने सिर्फ़ वही सीखा, 

जो वह देखना चाहती थी ।


रश्मि प्रभा

2 टिप्‍पणियां:

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 कितनी आसानी से हम कहते हैं  कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं ..." बिना बरसे ये बादल  अपने मन में उमड़ते घुमड़ते भावों को लेकर  आखिर कहां!...